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Saturday, February 19, 2011

मातृभाषा दिवस और केदारनाथ सिंह की कविता

21 फरवरी को विश्व मातृभाषा दिवस है। लेकिन अफसोस कि आज दुनिया की लगभग 96 प्रतिशत भाषाओं पर अस्तित्व का संकट है। गौरतलब है कि दुनिया की आबादी तो रोज बढ़ रही है, लेकिन उसको अभिव्यक्त करने वाली भाषाएं रोज घट रही हैं। यही सूरत बनी रही तो दुनियाभर के लोग महज इन्हीं चार फीसदी भाषाओं के माध्यम से खुद को व्यक्त करेंगे। भाषाओं पर संकट के दौर में पढि.ए सुपरिचित कवि केदारनाथ सिंह की यह कविता...

मेरी भाषा के लोग/केदारनाथ सिंह

मेरी सड़क के लोग हैं
सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग

पिछली रात मैंने एक सपना देखा
कि दुनिया के सारे लोग
एक बस में बैठे हैं
और हिंदी बोल रहे हैं
फिर वह पीली-सी बस
हवा में गायब हो गई
और मेरे पास बच गई सिर्फ मेरी हिंदी
जो अंतिम सिक्के  की तरह
हमेशा बच जाती है मेरे पास
हर मुश्किल में

कहती वह कुछ नहीं
पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ
कि उसकी खाल पर चोटों के
कितने निशान हैं
कि आती नहीं नींद उसकी कई संज्ञाओं को
दुखते हैं अक्सर कई विशेषण

पर इन सबके बीच
असंख्य होठों पर
एक छोटी-सी खुशी से थरथराती रहती है यह !

तुम झांक आओ सारे सरकारी कार्यालय
पूछ लो मेज से
दीवारों से पूछ लो
छान डालो फाइलों के ऊंचे-ऊंचे
मनहूस पहाड़
कहीं मिलेगा ही नहीं
इसका एक भी अक्षर
और यह नहीं जानती इसके लिए
अगर ईश्वर को नहीं
तो फिर किसे धन्यवाद दे !

मेरा अनुरोध है —
भरे चौराहे पर करबद्ध अनुरोध —
कि राज नहीं — भाषा
भाषा- भाषा- सिर्फ  भाषा रहने दो
मेरी भाषा को ।

इसमें भरा है
पास-पड़ोस और दूर-दराज. की
इतनी आवाजों का बूंद-बूंद अर्क
कि मैं जब भी इसे बोलता हूं
तो कहीं गहरे
अरबी तुर्की बांग्ला तेलुगु
यहां तक कि एक पत्ती के
हिलने की आवाज भी
सब बोलता हूं जरा-जरा
जब बोलता हूं हिंदी

पर जब भी बोलता हूं
यह लगता है —
पूरे व्याकरण में
एक कारक की बेचैनी हूं
एक तद्भव का दुख
तत्सम के पड़ोस में ।

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