साथ-साथ

Wednesday, December 9, 2009

महानगर में निर्गुण

एक
कहीं - कहीं पर
अटक - अटक कर
कहीं - कहीं तो
भटक - भटक कर
यहाँ न पाया - वहाँ न पाया
मूरख जीवन व्यर्थ गंवाया !
सौ चेहरों का बोझ ढो रही
कैसी तेरी निर्मल काया -
देखो - देखो, बहुरुपिया आया !
दो
भक्ति - भाव से -
श्रद्धा के असली तनाव से
माथे पर पड़ गयी शिकन
माला पहन
भये यों गदगद
जैसे कोई परम दुधारू गाय।
सोभा बरनि न जाय !
तीन
ले - दे कर निपटाओ भाई !
खरे - खरे से काम न चलता
खोटा सिक्का चले शहर में
दूर की कौड़ी कहाँ से लाई ?
चुप्पा - चुप्पा फिरे जगत में
कोई न बूझे
अपनी धुन में -
उसने अपनी रीति चलाई
बंगला पाया - गाडी पाई
इत्ती बात समझ ना आई
मूरख, जीवन व्यर्थ गंवाया !
चार
संभल के चलो यार
ये तो शहर धक्कामार
चलो, मैं ही पहले
अडंगी मारकर बताता हूँ -
आगे कदम फूँक-फूँक कर
रखना, मेरे यार
ये तो शहर धक्कामार !

3 comments:

  1. संभल के चलो यार
    ये तो शहर धक्कामार
    चलो, मैं ही पहले
    अडंगी मारकर बताता हूँ -
    बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति।

    ReplyDelete
  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!

    संभल के चलो यार
    ये तो शहर धक्कामार
    चलो, मैं ही पहले
    अडंगी मारकर बताता हूँ -
    आगे कदम फूँक-फूँक कर
    रखना, मेरे यार
    ये तो शहर धक्कामार !

    ReplyDelete
  3. अत्यंत सुन्दर भाव अद्भुत रचना

    ReplyDelete