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Tuesday, May 31, 2011

मां सपने देखने लगी है चश्मा चढ़ाकर

हिंदी की समकालीन कविता में बहुचर्चित कवयित्री अनामिका एक जरूरी उपस्थिति हैं- स्त्री होने के कारण भी और इसके अलावा भी। वे दिल्ली में रहती हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाती हैं। अनामिका आधुनिक हैं, मगर एक देशज चेतना के साथ- जो उनकी कविता का एक अनिवार्य स्वभाव है। पढि़ए, उनकी यह कविता-

प्रेमपत्र/अनामिका

इन दिनों बहुत ज्यादा ऊंघने लगी हूं
हाथ में किताब धरे, आंखों पर चश्मा चढ़ाए
सो जाती हूं तो हंस पड़ते हैं बच्चे-
मां सपने देखने लगी है चश्मा चढ़ाकर।
वैसे, यह बात बहुत गलत नहीं
कितनी भी आंखें गड़ाऊं-
पढ़ नहीं पाती मैं खुली आंख से अब कहीं भी
सपनों की चिट्ठी
कुछ खराबी मेरी आंखों की होगी
कुछ चिट्ठी लिखने वाले की भी
बिगड़ गए हैं अक्षर
अब वह सुडौल अक्षरों में
प्रेमपत्र लिखने के बदले
अस्फुट घसीटलिपि में ही थमाता है
जीवन के नुस्खे
आंखों का ये है कि
छाया रहता है धुंधलका
जल्दी समझ में नहीं आता
क्या अच्छा है, क्या बुरा
तब ही तो हंसते हैं बच्चे भी
कहते हैं आपस में हंसकर-
अपनी मां देखती है, देखो
सपने भी चश्मा चढ़ाकर।

Sunday, May 29, 2011

नाम तुम्हारा लिख डाला है टेबुल पर अनजाने में

नए दौर के गीतकार-कवियों में सुधांशु उपाध्याय एक जाना-पहचाना नाम हैं। प्यार में क्या कुछ खोकर क्या कुछ पाया जाता है, पढि़ए उनके इस गीत में-

नाम तुम्हारा/सुधांशु उपाध्याय

सबकुछ खोकर सब पा जाता
एक तुम्हें पा जाने में।
पहरों-पहरों फाइल ओढ़े
नाखूनों से काठ खुरचते
नाम तुम्हारा लिख डाला है
टेबुल पर अनजाने में।

शहरों से क्या रिश्ता जोड़ा
लोकधुनों ने मुंह ही मोड़ा
अपनी आंखें दगा दे गईं
अपनी लाज बचाने में।

दिन में मोम बने रहते हैं
रातों में जलना पड़ता है
खुद को बर्फ बनाकर देखा
रोज सुबह गलना पड़ता है
कितना कुछ सहना होता है
दर्पण से बतियाने में।

सबकुछ खोकर सब पा जाता
एक तुम्हें पा जाने में...।

Saturday, May 28, 2011

घंटी बजी और फोन पर मैंने हलो कहा

सहज-सरल भाषा में भी मर्मस्पर्शी गहन अर्थ पैदा किया जा सकता है। इसके उदाहरण हैं चर्चित कवि सत्यनारायण के गीत व कविताएं। पढि़ए, ढलती उम्र के प्रेम को व्यक्त करने वाला सत्यनारायण का यह गीत-

बढ़ी उम्र का गीत/सत्यनारायण

घंटी बजी, और फोन पर
मैंने हलो कहा।
वही, वही बिल्कुल
पहले जैसी ही धुली-धुली
उधर हंसी तुम और इधर
बगुलों की पांख खुली
बंधी झील में सहसा
पूरनमासी गई नहा।

होठों पर होंगी अब भी
कुछ बातें रुकी-रुकी
हर सवाल पर बड़ी-बड़ी
दो आंखें झुकी-झुकी
मन को मन से पढऩे का
वह अपना रंग रहा।

बढ़ी उम्र ने खींची ही होंगी
कुछ रेखाएं
बाल सफेद हुए होंगे
शायद दाएं-बाएं
फिर भी होगा वही चेहरा
था जो कभी रहा।

सुनो, कहां पूरा हो पाता है
अपना होना
खाली ही रह जाता है
मन का कोई कोना
बहुत अकेला कर ही देता है
कोई लमहा।
घंटी बजी और फोन पर
मैंने हलो कहा...

Thursday, May 26, 2011

चले नहीं जाना बालम...

हिंदी के विशिष्ट कवि स्वर्गीय सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने कभी बकरी नामक नाटक लिखा था, जिसके मंचन की एक वक्त में धूम थी। उन्होंने बहुत अच्छी प्रेम कविताएं भी लिखीं और कुछ गीत भी। पढि़ए, उनका यह प्रसिद्ध गीत-

सुहागिन का गीत/सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम।

ड्ïयोढ़ी पर पहले दीप जलाने दो मुझको
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझको
मंदिर के घंटे, शंख और घडिय़ाल बजे
पूजा की सांझ संझौती गाने दो मुझको
उगने तो दो पहले उत्तर में ध्रुवतारा
पथ के पीपल पर कर आने दो उजियारा
पगडंडी पर जल-फूल-दीप धर आने दो
चरणामृत जाकर ठाकुर जी का लाने दो

यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी-सी चले नहीं जाना बालम।

बेले की पहले ये कलियां खिल जाने दो
कल का उत्तर पहले इनसे मिल जाने दो
तुम क्या जानो यह किन प्रश्नों की गांठ पड़ी
रजनीगंधा से ज्वार सुरभि की आने दो
इस नीम-ओट से ऊपर उठने दो चंदा
घर के आंगन में तनिक रोशनी आने दो
कर लेने दो तुम मुझको बंद कपाट जरा
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो

यह ठंडी-ठंडी रात उनींदा-सा आलम
मैं नींद भरी-सी, चले नहीं जाना बालम।

चुप रहो जरा सपना पूरा हो जाने दो
घर की मैना को जरा प्रभाती गाने दो
खामोश धरा, आकाश दिशाएं सोयी हैं
तुम क्या जानो, क्या सोच रात भर रोयी हैं
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो
मुझको आंचल में हरसिंगार भर लेने दो
मिटने दो आंखों के आगे का अंधियारा
पथ पर पूरा-पूरा प्रकाश हो लेने दो

यह डूबी-डूबी सांझ उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम।

Monday, May 23, 2011

एक दौर में कई दौर हैं

 बीता हुआ समय आदमी को आसान लगता है, गुजरता हुआ समय कठिन और आनेवाला समय शायद कठिनतर महसूस होता है। चर्चित युवा कवि हरेप्रकाश उपाध्याय कहते हैं- एक दौर में कई दौर होते हैं। पढि़ए उनकी यह कविता-

समय/हरेप्रकाश उपाध्याय

धीरे-धीरे समय कठिन होता जा रहा है
धीरे-धीरे समय और कठिन होता जाएगा
क्या धीरे-धीरे समय बहुत कठिन हो जाएगा
क्या वह दौर हमारे ही वक्त में आएगा

जब समय सबसे कठिन हो जाएगा
उसके बाद कौन-सा समय आएगा
क्या धीरे-धीरे समय सरल होता जाएगा
क्या सबकुछ अपने-आप हो जाएगा
यह दौर किसके हिस्से आएगा...कैसे आएगा कब आएगा
कहो ज्योतिषियो, कहो
यह दौर किसके वक्त में आएगा
कहो सेठो, कहो सत्ताधीशो, कहो...

एक दौर में कई दौर हैं
किसके हिस्से कौन-सा छोर आएगा
यह सवाल कौन सुलझाएगा...?

Tuesday, May 17, 2011

ऐसे जन्म लेती है गुलामी

जैसे ही कोई अपनी प्रकृति छोड़ता है, गुलामी के घेरे में आ जाता है। इसे ही कहते हैं अपना सर्वस्व खो देना। पढि़ए चर्चित कवि-पत्रकार अनिल विभाकर की यह कविता-

तोता/अनिल विभाकर

बिल्कुल साफ-साफ बोलता है तोता
सुबह-सुबह रटने लगता है सीताराम...सीताराम
बोलने लगता है कटोरे-कटोरे
पिंजरे में कैद होने से पहले
उसे नहीं मालूम था यह नाम
नहीं आश्रित था किसी पर पेट भरने के लिए

इससे पहले पूरा आकाश उसका था
पूरी धरती थी उसकी
फलों से लदी हर डाली उसकी पहुंच में थी
कोई जरूरत नहीं थी किसी का नाम जपने की

तोता जबसे लेने लगा है यह नाम
तभी से वह कैद है पिंजरे में

उसने जबसे सीखी है आदमी की भाषा
बिल्कुल अलग हो गई है उसकी दुनिया
अलग-थलग हो गया है वह अपनी जमात से
पिंजरे में बंद तोता
फुटपाथ पर बैठ निकालने लगा है भविष्यफल
जबसे सीखा है उसने यह काम
वह और जकड़ गया है पिंजरे में

सीताराम रटने वाला तोता
पिंजरे से बाहर आकर निकालता है भविष्यफल
जाहिर है पिंजरे में नहीं है कोई भविष्य
आश्चर्य है बाहर आकर भी
वह फिर चला जाता है पिंजरे में खुद-ब-खुद

जबसे सीखा है उसने यह काम
वह भूल गया है अपनी दुनिया
तबसे वह भी फुटपाथ पर है
उसका मालिक भी
तोता वंचित हो गया है
पेड़ों में लगे पहले फल के स्वाद-सुख से
जीवन-सुख से भी।

Monday, May 16, 2011

सिपाही आंखें मूंदकर मुस्कराता है

एक सिपाही के जीवन की करुण परिणति के जरिए युद्ध की व्यर्थता बताने वाली यह कविता विम्मी सदारंगानी की है। पढि़ए कविता-

जब वह दिन आता है /विम्मी सदारंगानी

जब वह दिन आता है
सिपाही अपनी मां के पैर छूता है
पत्नी की ओर स्नेह से निहारता है
अपने बच्चे की पेशानी चूमता है...

जब वह दिन आता है
सिपाही मौत का सामान साथ ले निकलता है
बम और मिसाइल अपने गले से बांधता है
स्वयं को सख्तदिल दिखाने की कोशिश करता है...

जब वह दिन आता है
सिपाही लड़ाई के मैदान में पहुंचता है
अपने वतन की रक्षा के लिए
दूसरे वतन के सिपाही से लड़ता है...

जब वह दिन आता है
दिन गुजरता है, रात गुजरती है
धरती लाल होती है,
आसमान भी लाल होता है
और लाल रंग के अलावा कुछ भी नहीं बचता...

जब वह दिन आता है
सिपाही आंखें मूंदकर मुस्कराता है
वह दुनिया में शांति लाने के लिए जीता है
वह दुनिया में शांति लाने के लिए जंग करता है
वह दुनिया में शांति लाने के लिए मरता है
और आखिर शांति की दुनिया में चला जाता है
जब वह दिन आता है...

Sunday, May 15, 2011

तेरी ही आंधी है

सदानंद शाही बहुचर्चित साहित्य-पत्रिका साखी के संपादक और साहित्य के महत्वपूर्ण विमर्शकार हैं। उन्होंने कुछ बहुत अच्छी कविताएं भी लिखी हैं। पढि़ए उनकी एक कविता, जो बताती है कि समय के प्रवाह में एकाकार होने की कोशिश में ही जिंदगी अपना अर्थ ग्रहण करती है- उसे प्राप्त करती है।

तुम्हें खोजते/सदानंद शाही

नदियों के कल-कल में तुम गूंज रही हो
चिडिय़ों के कलरव में तेरी ही खिलखिल है
इस जंगल से उस जंगल तक
इस सागर से उस सागर तक
इस पर्वत से उस पर्वत तक
यह जो भागा-फिरता हूं
तेरी ही आंधी है
जिसमें उड़ता ठिठका अटका फिरता
घूम रहा हूं
इस धरती से उस धरती तक
तुम्हें खोजते
तुमको पाते और बिछुड़ते
कितनी सदियां बीत गईं
और कितनी सदियां बीतेंगी।

Friday, May 6, 2011

चार छै चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे

अदम गोंडवी की गजलें हमारे दौर का आईना हैं। वे उत्तर प्रदेश में गोंडा जिले के आटा परसपुर गांव में रहते हैं। व्यंग्य की ताकत का जैसा इस्तेमाल अदम गोंडवी अपनी गजलों में करते हैं, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। इस मोर्चे पर उन्हें अद्वितीय कहा जा सकता है। पढि़ए अदम की दो गजलें-

एक
जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे।

सुरा व सुंदरी के शौक में डूबे हुए रहबर
दिल्ली को रंगीले शाह का हम्माम कर देंगे।

ये वन्देमातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाजार में चीजों का दुगुना दाम कर देंगे।

सदन को घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।

दो
आंख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक्त का यूं मर्तबा आला रहे।

देखने को दे उन्हें अल्लाह कंप्यूटर की आंख
सोचने को कोई बाबा बाल्टीवाला रहे।

तालिबे-शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अखबार में प्रतिभूति घोटाला रहे।

एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार-छै चमचे रहें, माइक रहे, माला रहे।

Tuesday, May 3, 2011

पानी पर पहरा अलबेले दीवान का

युवा कवि सर्वेंद्र विक्रम की पानी को लेकर लिखी यह कविता एक तरह की निर्जली यात्रा है। पानी को लेकर लिखी बहुतेरी कविताओं से बिल्कुल अलग। जल के हाहाकार से भरी यह कविता पढि़ए-

पानी/सर्वेंद्र विक्रम

जब घर से चले
तो रास्ते भर कहीं नहीं था पानी
माथे पर उड़ रही थी धूल
सूखे हुए पोखरे और ताल
नहरें तो थीं ही अभिशप्त

गाड़ी चली तो किसी किस्से की बात चल पड़ी
जिसमें एक चिडिय़ा थी प्यासी
जूठा कर दिया था जिसने पानी
राजा के पीने लायक नहीं रहा,
दुखहरन देख रहे थे आम राय
चिडिय़ा है सजा की हकदार
पानी पर पहरा अलबेले दीवान का
नदियों का गिरवी जल
स्रोतों और झरनों का पट्ïटा धनवान का

पानी स्टेशनों पर भी नहीं था
अभागे थे नल
हालांकि सही जगहों पर जड़े हुए थे,
लेकिन पानी तो बहुत था, बताते हैं
कागज-पत्रों में
इतना था कि कहीं-कहीं बाढ़ सी आई हुई थी
फोटो भी गवाह थे
युवक-युवतियां रेन-डांस का मजा लूट रहे थे
हरी घास पर लान में,
फिर यहां क्यों नहीं था पानी
पानी क्यों नहीं आया
रूठकर चला गया कहां,
बतानेवालों ने बताया
आसमान पर किसी काली चादर के बारे में
चूल्हे में जलाई जाती लकड़ी के बारे में
मोटरों के धुएं और जंगल के बारे में
वातावरण की गर्मी के बारे में
रास्ते भर सकपकाए से डरे-डरे रहे दुखहरन
जैसे उन्हीं की वजह से पानी कहीं और चला गया
सिर्फ वही दोषी हों
पानी के इंतजाम की पड़ताल के लिए
पानी नहीं आया इस बार तय समय पर
नुकसान का अंदाजा लगाने के पहले
सबकुछ अपनी आंखों देखने के लिए
दौरे पर थे हाकिम-हुक्काम
पानी के बारे में निर्णायक भाषा में
वही लोग कह सकते थे कि पानी कहीं नहीं है
ज्यादातर इस पक्ष में थे
इसे घोषित भी किया जाए
सिर्फ तय करना शेष रहा घोषणा का प्रारूप
और एक सटीक अवसर,
इसके और भी कई फायदे थे

जब गाड़ी चली तो बनी रही सरल सी उम्मीद
दुखहरन भी घर से चले थे लेकर सत्तू और नमक
थोड़ा-सा चना-चबेना और दो डली गुड़
उन्हें पानी पर भरोसा था
कहीं न कहीं तो होगा ही
मिल जाएगा हर एक को जरूरत भर
उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था
कि पानी साथ लेकर चलनेवाली चीज है
एक दिन पानी भी बिकेगा
मन में थीं पानी की अनेक-अनेक स्मृतियां
पुरइन के पत्ते पर बूंद जैसा कांपना
कहानियों वाली गंगी और ठाकुर का कुआं
मार फौजदारी और जेहल-जेलखाना
चचिया ससुर का नकल उतारना
लखनऊ टेशन का आंखों देखा बयान
धुंधलके में टिमटिमाती आवाजें : हिंदू पानी-मुसलमान पानी
सुना महात्माजी ने भी किया है जिकिर
जब वे पधारे थे राजधानी में फलां सन् में

महज किस्सा भर नहीं रहा
पानी का बंटवारा
लेकिन बिकेगा, यह बात कुछ!

गते अषाढ़ जाते सावन जा रहे थे दुखहरन
घरबार छोड़ उधर पश्चिम की ओर
छोटे-बड़े टेशन-पड़ाव पार करते हुए,
पानी बिकने के लिए तैयार था या नहीं पता नहीं
लेकिन बिक रहा था और कोई मोलभाव नहीं।