कवि संजय चतुर्वेदी की लोक रंग में रंगी और व्यंग्य के रस में पगी ये कवितायेँ आज की वस्तुस्थितियों पर गजब की टिपण्णी करती हैं. इन कविताओं में जो विकट उत्पात है, क्या यह आज के बाजारवादी वक्त का उत्पात नहीं है ?
॥ अलप काल बिद्या सब आई॥
ऐसी परगति निज कुल घालक।
काले धन के मार बजीफा हम कल्चर के पालक,
एक सखी सतगुरू पै थूकै, एक बनी संचालक,
अलप काल बिद्या सब आई, बीर भए सब बालक॥
॥ कलासूरमा सदायश: प्रार्थी॥
कातिक के कूकुर थोरे-थोरे गुररत
थोरे-थोरे घिघियात फंसे आदिम बिधान में।
थोरे हुसियार थोरे-थोरे लाचार
थोरे-थोरे चिड़ीमार सैन मारत जहान में।
कोऊ भए बागी कोऊ-कोऊ अनुरागी
कोऊ घायल बैरागी करामाती खैंचतान में।
जैसी महान टुच्ची बासना के मैया-बाप
सोई गुन आत भए अगली संतान में।
॥ कालियनाग जमुनजल भोगै॥
आलोचक हैं अति कुटैम के खेंचत तार महीन।
कबिता रोय पाठ बिनसै साहित्य भए स्रीहीन।
चिट फंडन के मार बजीफा करें क्रांति रंगीन।
कालियनाग जमुनजल भोगै खुदई बजावै बीन॥
॥ ऊधौ देत सुपारी॥
हम नक्काद सबद पटवारी।
सरबत सखी निजाम हरामी हम ताके अधिकारी।
दाल-भात में मूसर मारें और खाएं तरकारी,
बिन बल्ला कौ किरकिट खेलें लंबी ठोकें पारी,
गैल-गैल भाजै बनवारी ऊधौ देत सुपारी॥
मजेदार..
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