दुष्यंत कुमार
नई कविता आंदोलन के प्रतिष्ठित कवि दुष्यंत कुमार को सबसे ज्यादा उनकी गजलों के लिए जाना गया। यहां पेश हैं उनकी गजलों की किताब साये में धूप से तीन गजलें...
॥ एक ॥
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है।
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है॥
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है॥
इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पांव घुटनों तक सना है॥
पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है॥
रक्त वषों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है॥
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है॥
दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है॥
॥ दो ॥
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है।
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है॥
वे कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू,
मैं क्या बताऊं मेरा कहीं और ध्यान है॥
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है॥
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है॥
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है॥
देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं
पैरों तले जमीन है या आसमान है॥
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेजुबान है॥
॥ तीन ॥
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है।
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है॥
एक चिनगारी कहीं से ढूंढ़ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है॥
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है॥
एक चादर सांझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है॥
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है॥
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है॥
नई कविता आंदोलन के प्रतिष्ठित कवि दुष्यंत कुमार को सबसे ज्यादा उनकी गजलों के लिए जाना गया। यहां पेश हैं उनकी गजलों की किताब साये में धूप से तीन गजलें...
॥ एक ॥
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है।
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है॥
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है॥
इस सड़क पर इस कदर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पांव घुटनों तक सना है॥
पक्ष औ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है॥
रक्त वषों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है॥
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना है॥
दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है॥
॥ दो ॥
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है।
माथे पे उसके चोट का गहरा निशान है॥
वे कर रहे हैं इश्क पे संजीदा गुफ्तगू,
मैं क्या बताऊं मेरा कहीं और ध्यान है॥
सामान कुछ नहीं है फटेहाल है मगर
झोले में उसके पास कोई संविधान है॥
उस सिरफिरे को यों नहीं बहला सकेंगे आप
वो आदमी नया है मगर सावधान है॥
फिसले जो इस जगह तो लुढ़कते चले गए
हमको पता नहीं था कि इतना ढलान है॥
देखे हैं हमने दौर कई अब खबर नहीं
पैरों तले जमीन है या आसमान है॥
वो आदमी मिला था मुझे उसकी बात से
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बेजुबान है॥
॥ तीन ॥
इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है।
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है॥
एक चिनगारी कहीं से ढूंढ़ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है॥
एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है॥
एक चादर सांझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है॥
निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है॥
दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है॥
No comments:
Post a Comment