स्वाधीनता दिवस की पूर्व संध्या पर पढि.ए इंसान और इंसानियत की जंग लड़ने वाली सबसे ताकतवर कलम से निकली एक शानदार नज्म- जी हां, फैज अहमद फैज की...
मोती हो के शीशा जाम के दुर
जो टूट गया, सो टूट गया
कब अश्कों से जुड़ सकता हैजो टूट गया, सो टूट गया
तुम नाहक टुकड़े चुन-चुनकर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो
शायद के इन्हीं टुकड़ों में कहीं
वो सागर-ए-दिल है जिसमें कभी
सद नाज से उतरा करती थी
सहबा-ए-गम-ए-जाना की परी
फिर दुनिया वालों ने तुमसे
ये सागर लेकर फोड़ दियाजो मय थी बहा दी मिटूटी में
मेहमान का शह-पर तोड़ दिया
ये रंगीं रेजे हैं शायद
उन शोख बिलूरी सपनों केतुम मस्त जवानी में जिनसे
खिल्वत को सजाया करते थे
नादारी, दफ्तर, भूख और गम
इन सपनों से टकराते रहेबेरहम था चौमुख पथराव
ये कांच के ढांचे क्या करते
या शायद इन जरों में कहीं
मोती है तुम्हारी इज्जत का
वो जिससे तुम्हारे इज्ज पे भी
शमशाद-कदों ने रश्क किया
इस माल की धुन में फिरते थे
ताजिर भी बहुत, रहजन भी कई
है चोर नगर यां मुफलिस की
गर जान बची तो आन गई
ये सागर, शीशे, लाल-ओ-गुहर
सालिम हों तो कीमत पाते हैंयूं टुकड़े-टुकड़े हों तो फकत
चुभते हैं, लहू रूलवाते हैं
तुम नाहक शीशे चुन-चुनकर
दामन में छुपाए बैठे हो
शीशों का मसीहा कोई नहीं
क्या आस लगाए बैठे हो।
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दुर= मोती, सद= सौ, सहबा-ए-गम-ए-जाना= प्रेमिका के विरह की शराब,
शह-पर= मुख्य पंख, रेजे= कण, खिल्वत= एकांत, नादारी= दरिद्रता, इज्ज= विनम्रता, शमशाद-कदों= अच्छे कदवाले यानी महबूब, सालिम= पूर्ण, पूरे।
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