1917 से 1997 तक जिंदगी का सफर तय करने वाले मुशायरों के बादशाह कैफ भोपाली अपनी शायरी के फलसफे के बारे में कहते हैं- मंजिल न कोई राहगुजर चाहता हूं मैं/अपने ही दिल तक एक सफर चाहता हूं मैं। भोपाल के संभवत: सबसे लोकप्रिय शायर रहे कैफ साहब की पढि़ए यह गजल-
गजल/कैफ भोपाली
ये दाढिय़ां ये तिलकधारियां नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियां नहीं चलतीं।
कबीले वालों के दिल जोडि़ए मेरे सरदार,
सरों को काट के सरदारियां नहीं चलतीं।
बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे,
दिलों के खेल में खुद्दारियां नहीं चलतीं।
छलक-छलक पड़ीं आंखों की गागरें अक्सर,
संभल-संभल के ये पनहारियां नहीं चलतीं।
जनाबे-कैफ ये दिल्ली है मीरो-गालिब की,
यहां किसी की तरफदारियां नहीं चलतीं।
बहुत ही सुंदर और सामयिक रचना।
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मेरे ख़ुदा मुझे जीने का वो सलीक़ा दे...
मेरे द्वारे बहुत पुराना, पेड़ खड़ा है पीपल का।
बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे,
ReplyDeleteदिलों के खेल में खुद्दारियां नहीं चलतीं ।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...वाह