साथ-साथ

Wednesday, April 27, 2011

झूठ के पेड़ तले सारा दिन बैठे रहते हैं

सच और झूठ का दांव-पेच ऐसा है कि जिंदगी इनके बीच पिसती रहती है-यह भी एक सच ही है। शहर में आदमी का निबाह कैसे हो, पढि़ए राही मासूम रजा की दो गजलें-

एक
हम भी झूठ के पेड़ तले सारा दिन बैठे रहते हैं
इस जीने के हाथों यारो देखो क्या-क्या सहते हैं।

खुश्की से मत धोखा खाना ये राहें हैं पानी की
जब इनका मौसम आता है ये दरिया भी बहते है।

अपना बियाबां ठीक है जोगी धूनी रमाए बैठा रह
शहरों का कुछ ठीक नहीं, बसते उजड़ते रहते हैं।

हर रम्माल-नजूमी देखा, हर पंडित से पूछ लिया
बात है दिल के मौसम की तो राही जी क्या कहते हैं।

दो
पहले तो राही जी घर जाओ गंगाजी में नहाओ
फिर वहीं पे चादर तान के लेट रहो-सो जाओ।

अपनी सारी मसलहतें तुम और कहीं ले जाओ
मैं तो गरीबां चाक हूं यारो मुझको मत समझाओ।

मेरे दर्दे-जुदाई की बस एक दवा है यारो
मेरे घर से चुटकी भर मेरा आंगन ले आओ।

दिन को तो ढल जाने दो, फिर चांद कोई निकलेगा
हिज्र के वन में पहला दिन है इतना मत घबराओ।

शीशागरों कायल हूं तुम्हारे फन का मैं भी लेकिन
दिल जैसा शीशा हो, तुम्हारे पास तो फिर दिखलाओ।

1 comment:

  1. बहुत आभार इन गज़लों को पढ़वाने का.

    ReplyDelete