साथ-साथ

Monday, April 25, 2011

खुद तमाशा हैं खुद तमाशाई

गद्य में ही नहीं, पद्य में भी राही मासूम रजा का अपना अलग रंग है। शायरी में भी परंपरा का केंचुल उतार कर उन्होंने अपना लहजा अपनाया है, जो उनकी शायरी को आधुनिक बनाता है। पढि़ए राही की यह गजल-

हाय अहले जुनूं की तनहाई
खुद तमाशा हैं खुद तमाशाई।

किसके हिस्से में चांद निकलेगा
किसकी होगी ये शामे-तनहाई।

जिसको देखो वो सिर्फ परछाईं
जिंदगी किस नगर में ले आई।

एक सूरजमुखी खिला जबसे
महकी-महकी है दिल की अंगनाई।

ऐसा लगता है इस बरस बरसात
जैसे इक दश्त ही उठा लाई।

क्या सुनाऊं मैं ख्वाब की बातें
रात तो नींद ही नहीं आई।

दर्दे-दिल सो रहा है मुद्दत से
दोस्तो, कब चलेगी पुरवाई।

कुछ तो बदला है हिज्र का मौसम
खिड़की खोली तो कुछ हवा आई।

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