बहरेपन की असल शिनाख्त यह है कि आदमी अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनना बंद कर दे। दरअसल, कान से न सुनाई देना यानी शारीरिक बहरेपन से कहीं ज्यादा खतरनाक है आत्मा का बहरापन। एकांत श्रीवास्तव की यह कविता पढ़कर जरूर कुछ ज्यादा सुनाई देने लगेगा-
पुकार/ एकांत श्रीवास्तव
बरसों से एक पुकार
मेरा पीछा कर रही है
एक महीन और मार्मिक पुकार
इस महानगर में भी
मैं इसे साफ-साफ सुन सकता हूं
आज जब यह पहली बारिश के बाद
धरती की सोंधी सुगंध की तरह
हर तरफ भर गई है
मैं एकदम बेचैन और अवश
हो गया हूं इसके सामने
क्या यह जड़ों की पुकार है
फुनगियों के लिए?
क्या यह डूबते दिन की पुकार है
पखेरुओं के लिए?
यह उस रास्ते की पुकार हो सकती है
जिसे अभी लौटने को कहकर
मैं छोड़ आया हूं
यह पहाड़ों में भटकती कंदील की पुकार होगी
यह मां की पुकार होगी
मैं बरसों से घर नहीं लौटा।
पुकार/ एकांत श्रीवास्तव
बरसों से एक पुकार
मेरा पीछा कर रही है
एक महीन और मार्मिक पुकार
इस महानगर में भी
मैं इसे साफ-साफ सुन सकता हूं
आज जब यह पहली बारिश के बाद
धरती की सोंधी सुगंध की तरह
हर तरफ भर गई है
मैं एकदम बेचैन और अवश
हो गया हूं इसके सामने
क्या यह जड़ों की पुकार है
फुनगियों के लिए?
क्या यह डूबते दिन की पुकार है
पखेरुओं के लिए?
यह उस रास्ते की पुकार हो सकती है
जिसे अभी लौटने को कहकर
मैं छोड़ आया हूं
यह पहाड़ों में भटकती कंदील की पुकार होगी
यह मां की पुकार होगी
मैं बरसों से घर नहीं लौटा।
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