1988 में छपी ज्ञानप्रकाश विवेक की दो गजलें यहां पेश हैं। इन्हें पढ़कर आप खुद सोच सकते हैं कि दुनिया चाहे जितनी तेजी से बदल रही हो, मगर आज लगभग 23 साल बाद भी ये अहसास कितने ताजा हैं और कतई बासी नहीं हुए हैं...
एक
ये कारवाने वक्त कसक छोड़ जाएगा
हर रास्ते पर अपने सबक छोड़ जाएगा।
मारोगे तुम गुलेल परिंदे को, और वो
उड़ते हुए भी अपनी चहक छोड़ जाएगा।
जुगनू की सादगी का मैं कैसे करूं बयां
मर जाएगा, मगर वो चमक छोड़ जाएगा।
है चांद तो लिखेगा मेरे हाथ पर नमनआकाश है तो अपना उफक छोड़ जाएगा।
उतरेगा बादलों की तरह लम्स जब तेरा
मेरी हथेलियों पे धनक छोड़ जाएगा।
बारूद बनके आएगा वो मेरे घर कभी
कुछ दे न दे, पर अपनी धमक छोड़ जाएगा।
तू मानता है अपना मुकद्दर जिसे विवेक
जख्मों पे तेरे वो भी नमक छोड़ जाएगा।
ऐ जिंदगी तू मुझको जरा आजमा के देख
मैं आइना हूं, मुझमें जरा मुस्करा के देख।
मैं रेत पर लिखा हुआ अक्षर नहीं कोई
तुझको नहीं यकीन तो मुझको मिटा के देख।
शीशा हूं टूटकर भी सदा छोड़ जाऊंगा
पत्थर पे एक बार तू मुझको गिरा के देख।
तुझमें परिंदे अपनी बनाएंगे बस्तियांखुद को तू एक बार शजर-सा बना के देख।
सपना हूं मैं तो फेंक दे आंखों को खोलकर
आंसू हूं मैं तो अपनी पलक पर उठा के देख।
क्या जाने टूट जाए अंधेरों का हौसला
इन आंधियों में तू भी जरा झिलमिला के देख।
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