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Friday, April 29, 2011

फटी बनियान का गोदाम बन गई है दिल्ली

सफलता-असफलता की सीमारेखा पर खड़े साधारण नागरिक की विडंबना के बहुत प्रामाणिक कवि हैं हेमंत कुकरेती। उनकी कविता में एक असमाप्त निरंतरता है और प्रतिबद्धता असंदिग्ध। उनकी कविता मनुष्य बने रहने की बेचैनी से हमें भर देती है। पढि़ए हेमंत की एक मार्मिक कविता-

एक मनुष्य से मिलना/हेमंत कुकरेती

जाने क्या सोचकर मुझे टटोलता हुआ-सा आया मेरे पास
हाल में ही बंद हुई फैक्ट्री का बेकार मजदूर था
बार-बार देखता रहा वह मुझे
मैं उसे ताड़ता रहा कनखियों से

इन दिनों काफी हलचल है यहां
शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए लोग उजड़ रहे हैं
सुनते हैं कि मुफ्त गाडिय़ां भर-भरकर जा रही हैं
लोग जा रहे हैं बदहवास अपने उस बदहाल घर
जिसे छोड़ अर्सा हुआ आए थे यहां जीने भर के लिए
थोड़ा-सा कुछ जुटाने

बिहार, छत्तीसगढ़, पूर्वी उत्तर प्रदेश की फटी बनियान का
गोदाम बन गई है दिल्ली
सरकार रुको और इंतजार करो :
आखिरकार टाल दो के अंदाज में सुनती है
मार खाए लोगों की कहानी

इस कहानी के हाशिए पर पड़ा प्रश्नचिन्ह वह
झिझकते सहमकर बैठा मेरे पास
ऐसे ही उसे दिख गई मेरे कॉलर पर रेंगती चींटी
जैसे बंदर संवारते हैं अपने मुखिया के बाल
और उसके करीबी बन जाते हैं
मुझे लगा शायद चींटी कोई थी ही नहीं
वह केवल यह कहना चाहता था- कोई काम मिलेगा!

मुझमें तलाश रहा था वह एक मनुष्य

मैंने झुकी आंखों से हाथों को बोलते सुना
पर मैं उसमें नहीं देख पाया
जो पशुओं से अलग करता है हमें।

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