कैफी आजमी आजीवन कम्यूनिस्ट रहे- विचार से भी और कर्म से भी। वो जैसी दुनिया चाहते थे, वह सोवियत संघ में भी नजर नहीं आई। सितम्बर 1974 में मास्को-सफर का एहसास उनकी इस गजल में है-
मैं ढूंढ़ता हूं जिसे वह जहां नहीं मिलता
नई जमीन नया आसमां नहीं मिलता।
नई जमीन नया आसमां भी मिल जाए
नए बशर का कहीं कुछ निशां नहीं मिलता।
वह तेग मिल गई जिससे हुआ है कत्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशां नहीं मिलता।
वह मेरा गांव है वो मेरे गांव के चूल्हे
कि जिनमें शोले तो शोले, धुआं नहीं मिलता।
जो इक खुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
यहां तो कोई मेरा हमजबां नहीं मिलता।
खड़ा हूं कबसे मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहां नहीं मिलता।
मैं ढूंढ़ता हूं जिसे वह जहां नहीं मिलता
नई जमीन नया आसमां नहीं मिलता।
नई जमीन नया आसमां भी मिल जाए
नए बशर का कहीं कुछ निशां नहीं मिलता।
वह तेग मिल गई जिससे हुआ है कत्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशां नहीं मिलता।
वह मेरा गांव है वो मेरे गांव के चूल्हे
कि जिनमें शोले तो शोले, धुआं नहीं मिलता।
जो इक खुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
यहां तो कोई मेरा हमजबां नहीं मिलता।
खड़ा हूं कबसे मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहां नहीं मिलता।
बहुत आभार इस नज़्म को यहाँ प्रस्तुत करने का.
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