बीती सदी में लिखी कैफी आजमी की यह गजल आज के वक्त और हालात पर भी लागू हो रही है तो जरा सोचिए कि हमने कितनी तरक्की की है और आम आदमी की जिंदगी में कितनी और कैसी बेहतरी आई है?
हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई।
लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई।
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तहार इक लगा गया कोई।
ऐसी महंगाई है कि चेहरे भी
बेच के अपना खा गया कोई।
अब कुछ अरमां हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई।
ये सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई।
वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा खुदा गया कोई।
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गांव से जब भी आ गया कोई।
हाथ आकर लगा गया कोई
मेरा छप्पर उठा गया कोई।
लग गया इक मशीन में मैं भी
शहर में ले के आ गया कोई।
मैं खड़ा था कि पीठ पर मेरी
इश्तहार इक लगा गया कोई।
ऐसी महंगाई है कि चेहरे भी
बेच के अपना खा गया कोई।
अब कुछ अरमां हैं न कुछ सपने
सब कबूतर उड़ा गया कोई।
ये सदी धूप को तरसती है
जैसे सूरज को खा गया कोई।
वो गए जब से ऐसा लगता है
छोटा-मोटा खुदा गया कोई।
मेरा बचपन भी साथ ले आया
गांव से जब भी आ गया कोई।
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