कवि मुक्तिबोध की पांच चरणों में लिखी कविता का पहला और अंतिम हिस्सा प्रस्तुत है। जिंदगी क्या आत्मीयता की तलाश में एक पुलक भरा भटकाव है? क्या यह भटकाव ही हमें अनुभव सम्पन्न नहीं बनाता? इस भटकाव में ही जिंदगी को अर्थवत्ता मिलती है...
पता नहीं.../मुक्तिबोध
पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिंदगी की
जिससे जिस जगह मिले
हैं ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, जमीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
.............
अपनी धकधक
में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,
या नि:स्वात्मक विकास का युग
जिसकी मानव-गति को सुनकर
तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के
चरण-तले जनपथ बनकर!!
वे आस्थाएं तुमको दरिद्र करवाएंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
प्रसन्न होगे!!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी
जिस जगह, जहां जो छोर मिले
ले जाएगी...
...पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले।
पता नहीं.../मुक्तिबोध
पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले
किस सांझ मिले, किस सुबह मिले!!
यह राह जिंदगी की
जिससे जिस जगह मिले
हैं ठीक वहीं, बस वहीं अहाते मेंहदी के
जिनके भीतर
है कोई घर
बाहर प्रसन्न पीली कनेर
बरगद ऊंचा, जमीन गीली
मन जिन्हें देख कल्पना करेगा जाने क्या!!
तब बैठ एक
गंभीर वृक्ष के तले
टटोलो मन, जिससे जिस छोर मिले,
कर अपने-अपने तप्त अनुभवों की तुलना
घुलना मिलना!!
.............
अपनी धकधक
में दर्दीले फैले-फैलेपन की मिठास,
या नि:स्वात्मक विकास का युग
जिसकी मानव-गति को सुनकर
तुम दौड़ोगे प्रत्येक व्यक्ति के
चरण-तले जनपथ बनकर!!
वे आस्थाएं तुमको दरिद्र करवाएंगी
कि दैन्य ही भोगोगे
पर, तुम अनन्य होगे,
प्रसन्न होगे!!
आत्मीय एक छवि तुम्हें नित्य भटकाएगी
जिस जगह, जहां जो छोर मिले
ले जाएगी...
...पता नहीं, कब कौन कहां किस ओर मिले।
bahut hee sundar kavita , bahut-bahut badhayi
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