तुर्की के विख्यात कवि नाजिम हिकमत की दो कविताओं को पढि.ए फैज अहमद फैज की तर्जुमानी में। इन नज्मों को पढ़ने के पहले यह याद रखना जरूरी है कि हिकमत तुर्की की आजादी की लड़ाई में शामिल थे और उन्हें जेलखाना और देशनिकाला भोगना पड़ा था।
जिन्दां से एक खत
मेरी जां तुझको बतलाऊं बहुत नाजुक ये नुक्ता है
बदल जाता है इंसां जब मकां उसका बदलता है
मुझे जिन्दां में प्यार आने लगा है अपने ख्वाबों पर
जो शब को नींद अपने मेहरबां हाथों से
वा करती है दर उसका
तो आ गिरती है हर दीवार उसकी मेरे कदमों पर
मैं ऐसे गर्क हो जाता हूं इस दम अपने ख्वाबों में
कि जैसे इक किरन ठहरे हुए पानी पे गिरती है
मैं इन लम्हों में कितना सरखुश-ओ-दिलशाद फिरता हूं
जहां की जगमगाती वुस्अतों में किस कदर आजाद फिरता हूं
जहां दर्द-ओ-अलम का नाम है कोई न जिन्दां है
तो फिर बेदार होना किस कदर तुम पर गरां होगा
नहीं ऐसा नहीं है मेरी जां मेरा ये किस्सा है
मैं अपने अज्म-ओ-हिम्मत से
वही कुछ बख्शता हूं नींद को जो उसका हिस्सा है
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जिन्दां=जेल, नुक्ता=भेद, सरखुश-ओ-दिलशाद=खुशमिजाज, जहां=दुनिया,
वुस्अतों=विस्तार, बेदार होना=जागना, गरां=भारी, अज्म=संकल्प
वा मेरे वतन
ओ मेरे वतन, ओ मेरे वतन, ओ मेरे वतन!
मेरे सर पर वो टोपी न रही
जो तेरे देस से लाया था
पांवों में वो अब जूते भी नहीं
वाकिफ थे जो तेरी राहों से
मेरा आखिरी कुर्ता चाक हुआ
तेरे शहर में जो सिलवाया था
अब तेरी झलक
बस उड़ती हुई रंगत है मेरे बालों की
या झुर्रियां मेरे माथे पर
या मेरा टूटा हुआ दिल है
वा मेरे वतन, वा मेरे वतन, वा मेरे वतन!
जिन्दां से एक खत
मेरी जां तुझको बतलाऊं बहुत नाजुक ये नुक्ता है
बदल जाता है इंसां जब मकां उसका बदलता है
मुझे जिन्दां में प्यार आने लगा है अपने ख्वाबों पर
जो शब को नींद अपने मेहरबां हाथों से
वा करती है दर उसका
तो आ गिरती है हर दीवार उसकी मेरे कदमों पर
मैं ऐसे गर्क हो जाता हूं इस दम अपने ख्वाबों में
कि जैसे इक किरन ठहरे हुए पानी पे गिरती है
मैं इन लम्हों में कितना सरखुश-ओ-दिलशाद फिरता हूं
जहां की जगमगाती वुस्अतों में किस कदर आजाद फिरता हूं
जहां दर्द-ओ-अलम का नाम है कोई न जिन्दां है
तो फिर बेदार होना किस कदर तुम पर गरां होगा
नहीं ऐसा नहीं है मेरी जां मेरा ये किस्सा है
मैं अपने अज्म-ओ-हिम्मत से
वही कुछ बख्शता हूं नींद को जो उसका हिस्सा है
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जिन्दां=जेल, नुक्ता=भेद, सरखुश-ओ-दिलशाद=खुशमिजाज, जहां=दुनिया,
वुस्अतों=विस्तार, बेदार होना=जागना, गरां=भारी, अज्म=संकल्प
वा मेरे वतन
ओ मेरे वतन, ओ मेरे वतन, ओ मेरे वतन!
मेरे सर पर वो टोपी न रही
जो तेरे देस से लाया था
पांवों में वो अब जूते भी नहीं
वाकिफ थे जो तेरी राहों से
मेरा आखिरी कुर्ता चाक हुआ
तेरे शहर में जो सिलवाया था
अब तेरी झलक
बस उड़ती हुई रंगत है मेरे बालों की
या झुर्रियां मेरे माथे पर
या मेरा टूटा हुआ दिल है
वा मेरे वतन, वा मेरे वतन, वा मेरे वतन!
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