जनपद
मौसम तो इंसान के अन्दर रहता है
साथ-साथ
Thursday, October 18, 2012
गद्य-वद्य कुछ लिखा करो
दिवंगत कवि त्रिलोचन का काव्य-व्यक्तित्व पचास वषों से भी ज्यादा लंबे समय तक फैला हुआ है। त्रिलोचन जी को अपना काव्यगुरू मानने वाले वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह का कहना है- त्रिलोचन एक खास अर्थ में आधुनिक हैं और सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि वे आधुनिकता के सारे प्रचलित सांचों को अस्वीकार करते हुए भी आधुनिक हैं। यहां पढि.ए त्रिलोचन जी का एक सॉनेट-
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गद्य-वद्य कुछ लिखा करो। कविता में क्या है।
आलोचना जमेगी। आलोचक का दर्जा-
मानो शेर जंगली सन्नाटे में गर्जा
ऐसा कुछ है। लोग सहमते हैं। पाया है
इतना रूतबा कहां किसी ने कभी। इसलिए
आलोचना लिखो। शर्मा ने स्वयं अकेले
बडे.-बड़े दिग्गज ही नहीं, हिमालय ठेले,
शक्ति और कौशल के कई प्रमाण दे दिए :
उद्यम करके कोलतार ले-लेकर पोता,
बड़े-बड़े कवियों की मुख छवि लुप्त हो गई,
गली-गली में उनके स्वर की गूंज खो गई,
लोग भुनभुनाए घर में, इससे क्या होता !
रूख देखकर समीक्षा का अब मैं हूं हामी,
कोई लिखा करे कुछ, जल्दी होगा नामी।
Tuesday, May 15, 2012
दर्द का अपना इक मकान भी था
दर्द का अपना इक मकान भी था श्याम सखा श्याम कवि और कथाकार-उपन्यासकार श्याम सखा श्याम ने बुनियादी तौर पर तो इलाज वाली डाक्टरी की पढ़ाई की है और वे एमबीबीएस, एफसीजीपी हैं, लेकिन उन्होंने रचनाकर्म पर पीएच.डी. और चार एम.फिल शोधकार्य भी किए हैं। उनके लेखन का क्षेत्र व्यापक है और हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी व हरियाणवी में उनकी कृतियां प्रकाशित व प्रशंसित हैं। हरियाणवी साहित्य अकादमी के निदेशक श्याम जी के गजलों की ताजा किताब शुक्रिया जिंदगी अभी-अभी हिंदी युग्म से छपकर आई है। पढि.ए इसी किताब की यह गजल- ॥ एक॥ जख्म था, जख्म का निशान भी था दर्द का अपना इक मकान भी था। दोस्त था और मेहरबान भी था ले रहा मेरा इम्तिहान भी था। शेयरों में गजब उफान भी था कर्ज में डूबता किसान भी था। आस थी जीने की अभी बाकी रास्ते में मगर मसान भी था। कोई काम आया कब मुसीबत में कहने को अपना खानदान भी था। मर के दोजख मिला तो समझे हम वाकई दूसरा जहान भी था। उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें फासिला उनके दरमियान भी था। खुदकुशी श्याम कर ली क्यों तूने तेरी किस्मत में आसमान भी था। श्याम सखा श्याम कवि और कथाकार-उपन्यासकार श्याम सखा श्याम ने बुनियादी तौर पर तो इलाज वाली डाक्टरी की पढ़ाई की है और वे एमबीबीएस, एफसीजीपी हैं, लेकिन उन्होंने रचनाकर्म पर पीएच.डी. और चार एम.फिल शोधकार्य भी किए हैं। उनके लेखन का क्षेत्र व्यापक है और हिंदी, अंग्रेजी, पंजाबी व हरियाणवी में उनकी कृतियां प्रकाशित व प्रशंसित हैं। हरियाणवी साहित्य अकादमी के निदेशक श्याम जी के गजलों की ताजा किताब शुक्रिया जिंदगी अभी-अभी हिंदी युग्म से छपकर आई है। पढि.ए इसी किताब की यह गजल-
जख्म था, जख्म का निशान भी था
दर्द का अपना इक मकान भी था।
दोस्त था और मेहरबान भी था
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था।
शेयरों में गजब उफान भी था
कर्ज में डूबता किसान भी था।
आस थी जीने की अभी बाकी
रास्ते में मगर मसान भी था।
कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना खानदान भी था।
मर के दोजख मिला तो समझे हम
वाकई दूसरा जहान भी था।
उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें
फासिला उनके दरमियान भी था।
खुदकुशी श्याम कर ली क्यों तूने
तेरी किस्मत में आसमान भी था।
जख्म था, जख्म का निशान भी था
दर्द का अपना इक मकान भी था।
दोस्त था और मेहरबान भी था
ले रहा मेरा इम्तिहान भी था।
शेयरों में गजब उफान भी था
कर्ज में डूबता किसान भी था।
आस थी जीने की अभी बाकी
रास्ते में मगर मसान भी था।
कोई काम आया कब मुसीबत में
कहने को अपना खानदान भी था।
मर के दोजख मिला तो समझे हम
वाकई दूसरा जहान भी था।
उम्र भर साथ था निभाना जिन्हें
फासिला उनके दरमियान भी था।
खुदकुशी श्याम कर ली क्यों तूने
तेरी किस्मत में आसमान भी था।
Sunday, May 13, 2012
अदम गोंडवी की दो गजलें
धरती की सतह पर नाम से अदम गोंडवी की गजलों की किताब दिल्ली के किताबघर से अभी-अभी छपी है। जाहिर है, गजलें नई तो नहीं हैं लेकिन इन्हें बार-बार पढ़ा जा सकता है और यह किताब अपने संग्रह में रखी जा सकती है। पढि.ए इसी संग्रह की दो गजलें-
॥ एक॥
टीवी से अखबार तक गर सेक्स की बौछार हो
फिर बताओ कैसे अपनी सोच का विस्तार हो।
बह गए कितने सिकंदर वक्त के सैलाब में,
अक्ल इस कchche घड़े से कैसे दरिया पार हो।
सभ्यता ने मौत से डरकर उठाए हैं कदम,
ताज की कारीगरी या चीन की दीवार हो।
मेरी खुदूदारी ने अपना सिर झुकाया दो जगह,
वो कोई मजलूम हो या साहिबे-किरदार हो।
एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हें,
झोपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार हो।
॥ दो॥
मुक्तिकामी चेतना, अभ्यर्थना इतिहास की
ये समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की।
आप कहते हैं जिसे इस देश का स्वण्रिम अतीत,
वो कहानी है महज प्रतिशोध की, संत्रास की।
यक्ष-प्रश्नों में उलझकर रह गई बूढ़ी सदी,
ये प्रतीक्षा की घड़ी है क्या हमारी प्यास की।
इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया,
सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की।
याद रखिए यूं नहीं ढलते हैं कविता में विचार,
होता है परिपाक धीमी आंच पर एहसास की।
Tuesday, April 17, 2012
अनिल यादव की चीन्हाखचाई
अनिल यादव पेशे से पत्रकार हैं। घुमक्कड़ हैं। गजब के गद्यकार हैं। उनकी कहानियों की पुस्तक नगरबधुएं अखबार नहीं पढ़तीं और यात्रा पुस्तक वह भी कोई देस है महराज अंतिका प्रकाशन से छपकर आई हैं। दोनों पुस्तकों की खूब चर्चा रही है और सबसे बड़ी बात है कि पाठकों ने इन्हें हाथो-हाथ लिया है। अनिल के लेखन की खासियत है कि उनकी भाषा भी विषयवस्तु का हिस्सा होती है, उसे अलगाया नहीं जा सकता। अनिल ने कभी-कभार छिटपुट कविताएं भी लिखी हैं। पढि.ए उनकी यह चीन्हाखचाई...
॥ एक॥
भारी जबड़े वाली एक सांवली
बुढ़ाती लड़की को
तीन-चार आदमी रह-रहकर
आंटे की तरह गूंथने लगते थे
वह आनंद में विभोर जब
लेती थी सिसकारी
दांत दिखते थे और आंखे ढरक जाती थीं
मरती गाय की तरह।
वैसे ही तुंदियल थे वैसे ही फूहड़
वही छींटदार कमीजें
वही सेल में दाम पूछने भर अंग्रेजी
वैसे ही गुस्से में फनफनाते थे बेवजह
दांत पीसते अकड़े रहते थे
जैसे मेरे अगल-बगल
ब्लू फिल्म जैसे जीवन में।
कपट उदासीनता से देखते थे बूढ़े
अंडकोषों के जोर से चीखते थे बेबस लड़के
मेरे जीवन से फाड़े उस परदे पर
मिस लिन्डा का सबसे स्वाभाविक अभिनय
बलात्कार से बचने का था।
हाउस फुल था
वह शस्य श्यामल सिनेमा हाल।
॥ दो॥
तोते : शरारती लड़के खदेड़े गए
कौए : कामकाजी और दुनियादार
मैना : अंधेरा देख घर की तरफ भागती देहातिन
गौरेया : भेली खाते कुदकती कोई लड़की
वे ट्रैफिक में रेंगते, तनावग्रस्त
बेडरूमों में पसरे तुंदियलों के देख क्या सोचते होंगे
यही न, मरें साले ये इसी लायक हैं।
सच मानो
मैं चिड़ियों की नजर में अच्छा बनने की कोशिश नहीं कर रहा हूं।
॥ तीन॥
ओ घरघुसने, बाहर निकल
पान की दुकान तक बेमकसद यूं ही चल।
कबाड़ी की साइकिल की तीलियों पर टूटते
सूर्य को देख
ओ चिन्ताग्रस्त, एक्जीक्यूटिव इंडिया के पूत
कूड़े को घूर गरदन झमकाते कौवे की तरह
कितनी ही बार धरती की परिक्रमा करने के बाद वहां
पर्वत शिखर से टकरा कर टूटी कार पड़ी है
और एक गुड़िया है जो
रोज सजने-सिसकने से उकताकर भाग निकली है घर से
जो सिगरेट की डिब्बी का तकिया लगाए नंगी
मुस्करा रही है।
देख ओ अकेलेपन और अवसाद के मारे
उन गुलाबी छल्लों की गांठों में प्रेम है
जिन्हें स्मारक के जतन से बांधा गया।
किसी दाई या बाई के
खपरैल जैसे पैर देख
फूली नसों पर मैल की धारियों में
उन द्वीपों की धूल,
जहां तू कभी गया नहीं।
और कुछ नहीं तो सुन
छत के ऊपर बादलों तक चढ़ता
तानसेन तरकारी वाले का अलाप
खरीद ले अठन्नी की इमली
अबे ओ घरघुसने, बाहर निकल
एक्जीक्यूटिव इंडिया के पूत।
Saturday, April 14, 2012
और अगर तुम बना नहीं सको अपना जीवन
यात्रा बुक्स, दिल्ली से छपी है कवाफी की कविताओं की किताब, जिसका नाम माशूक है। उनकी कविताओं का बहुत ही शानदार अनुवाद किया है पीयूष दईया ने। पीयूष स्वयं एक अच्छे कवि हैं।
॥ जहां तक हो सके॥
कवाफी
जैसा चाहो वैसा
तो कम से कम इतना करो उसे बिगाड़ो मत
...बैर मत काढ़ो यूं खुद से...
सब के इतना मुंह लगा रहकर
लटकते-मटकते उठते-बैठते चटरपटर करते
अपना जीवन सस्ता मत बना लो
दर-दर मारे-मारे फिरकर
हर कहीं इसे कुलियों जैसे ढोते-घसीटते और बेपर्दा करते
यारबाशों और उनके लगाए मजमों की चालू चटोरागीरी के लिए
कि यह भासने लगे...
कोई ऐसा जो लग लिया हो पीछे छेड़खानी करते तुमसे।
॥ जहां तक हो सके॥
कवाफी
जैसा चाहो वैसा
तो कम से कम इतना करो उसे बिगाड़ो मत
...बैर मत काढ़ो यूं खुद से...
सब के इतना मुंह लगा रहकर
लटकते-मटकते उठते-बैठते चटरपटर करते
अपना जीवन सस्ता मत बना लो
दर-दर मारे-मारे फिरकर
हर कहीं इसे कुलियों जैसे ढोते-घसीटते और बेपर्दा करते
यारबाशों और उनके लगाए मजमों की चालू चटोरागीरी के लिए
कि यह भासने लगे...
कोई ऐसा जो लग लिया हो पीछे छेड़खानी करते तुमसे।
Friday, April 13, 2012
कैसा हो स्कूल हमारा!
गिर्दा
कैसा हो स्कूल हमारा!
जहां न बस्ता कन्धा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न अक्षर कान उघाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न भाषा जख्म उखारे, ऐसा हो स्कूल हमारा
कैसा हो स्कूल हमारा!
जहां अंक सच-सच बतलाए, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां प्रश्न हल तक पहुचांए, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न हो झूठ का दिखव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न सूट-बूट का हव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा
कैसा हो स्कूल हमारा!
कैसा हो स्कूल हमारा!
जहां न बस्ता कन्धा तोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न पटरी माथा फोड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न अक्षर कान उघाड़े, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न भाषा जख्म उखारे, ऐसा हो स्कूल हमारा
कैसा हो स्कूल हमारा!
जहां अंक सच-सच बतलाए, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां प्रश्न हल तक पहुचांए, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न हो झूठ का दिखव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा
जहां न सूट-बूट का हव्वा, ऐसा हो स्कूल हमारा
कैसा हो स्कूल हमारा!
Sunday, October 23, 2011
भोंदू जी की सर्दियां
वीरेन डंगवाल
बहुत प्यारे कवि और अपनी ही धज की कविताएं लिखने वाले वीरेन डंगवाल की कविताओं के लिए उनके मुरीदों को हमेशा इंतजार और उत्सुकता रहती है। उनकी कविता पुस्तकें दुष्चक्र में स्रष्टा और स्याही ताल बहुतों के लिए धरोहर सरीखी हैं। पढि.ए इस मौसम की यह कविता...
आ गई हरी सब्जियों की बहार
पराठे मूली के, मिर्च, नींबू का अचार
मुलायम आवाज में गाने लगे मुंह-अंधेरे
कउए सुबह का राग शीतल कठोर
धूल और ओस से लथपथ बेर के बूढ़े पेड़ में
पक रहे चुपके से विचित्र सुगंधवाले फल
फेरे लगाने लगी गिलहरी चोर
बहुत दिनों बाद कटा कोहरा खिला घाम
कलियुग में ऐसे ही आते हैं सियाराम
नया सूट पहन बाबू साहब ने
नई घरवाली को दिखलाया बांका ठाठ
अचार से परांठे खाए सर पर हेल्मेट पहना
फिर दहेज की मोटर साइकिल पर इतराते
ठिठुरते हुए दफ्तर को चले
भोंदू की तरह।
बहुत प्यारे कवि और अपनी ही धज की कविताएं लिखने वाले वीरेन डंगवाल की कविताओं के लिए उनके मुरीदों को हमेशा इंतजार और उत्सुकता रहती है। उनकी कविता पुस्तकें दुष्चक्र में स्रष्टा और स्याही ताल बहुतों के लिए धरोहर सरीखी हैं। पढि.ए इस मौसम की यह कविता...
आ गई हरी सब्जियों की बहार
पराठे मूली के, मिर्च, नींबू का अचार
मुलायम आवाज में गाने लगे मुंह-अंधेरे
कउए सुबह का राग शीतल कठोर
धूल और ओस से लथपथ बेर के बूढ़े पेड़ में
पक रहे चुपके से विचित्र सुगंधवाले फल
फेरे लगाने लगी गिलहरी चोर
बहुत दिनों बाद कटा कोहरा खिला घाम
कलियुग में ऐसे ही आते हैं सियाराम
नया सूट पहन बाबू साहब ने
नई घरवाली को दिखलाया बांका ठाठ
अचार से परांठे खाए सर पर हेल्मेट पहना
फिर दहेज की मोटर साइकिल पर इतराते
ठिठुरते हुए दफ्तर को चले
भोंदू की तरह।
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