साथ-साथ

Tuesday, June 28, 2011

इक नया जख्म मिला, एक नई उम्र मिली

पढि़ए कैफ भोपाली की यह एक और खूबसूरत गजल-

दाग दुनिया ने दिए, जख्म जमाने से मिले।
हमको तोहफे ये तुम्हें दोस्त बनाने से मिले॥

हम तरसते ही, तरसते ही, तरसते ही रहे,
वो फलाने से, फलाने से, फलाने से मिले॥

खुद से मिल जाते तो चाहत का भरम रह जाता,
क्या मिले आप जो लोगों के मिलाने से मिले॥

कभी लिखवाने गए खत, कभी पढ़वाने गए,
हम हसीनों से इसी हीले-बहाने से मिले॥

इक नया जख्म मिला, एक नई उम्र मिली,
जब किसी शहर में कुछ यार पुराने से मिले॥

एक हम ही नहीं फिरते हैं लिए किस्सए-गम,
उनके खामोश लबों पर भी फसाने-से मिले॥

कैसे मानें के उन्हें भूल गया तू ऐ कैफ,
उनके खत आज हमें तेरे सिरहाने से मिले॥

Monday, June 27, 2011

सड़कों का हुस्न है मेरी आवारगी के साथ

अपनी शायरी के बारे में मशहूर शायर जनाब कैफ भोपाली इस गजल के आखिर में कहते हैं- गम की बात को भी खुशी के मूड में लिखने का खास अंदाज कैफ के साथ है। अब पढि़ए यह गजल-

कुटिया में कौन आएगा इस तीरगी के साथ,
अब ये किवाड़ बंद करो खामुशी के साथ।

साया है कम खजूर के ऊंचे दरख्त का,
उम्मीद बांधिए न बड़े आदमी के साथ।

चलते हैं बचके शेखो-बरहमन के साए से,
अपना यही अमल है बुरे आदमी के साथ।

शाइस्तगाने-शहर मुझे ख्वाह कुछ कहें,
सड़कों का हुस्न है मेरी आवारगी के साथ।

लिखता है गम की बात मसर्रत के मूड में,
मख्सूस है ये तर्ज फकत कैफ ही के साथ।

Sunday, June 26, 2011

हंसता चेहरा एक बहाना लगता है

एक अच्छी गजल अलग-अलग फूलों के गुलदस्ते की तरह होती है। गजल का एक-एक शेर अलग-अलग अर्थ-छवि लेकर आता है। पढि़ए कैफ भोपाली की ये गजलें-

एक
तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है,
तेरे आगे चांद पुराना लगता है।

तिरछे-तिरछे तीर नजर के लगते हैं,
सीधा-सीधा दिल पे निशाना लगता है।

आग का क्या है पल दो पल में लगती है,
बुझते-बुझते एक जमाना लगता है।

पांव न बांधा पंछी का पर बांधा है,
आज का बच्चा कितना सयाना लगता है।

सच तो ये है फूल का दिल ही छलनी है,
हंसता चेहरा एक बहाना लगता है।

कैफ बता क्या तेरी गजल में जादू है,
बच्चा-बच्चा तेरा दीवाना लगता है।

दो
तेरा चेहरा सुबह का तारा लगता है,
सुबह का तारा कितना प्यारा लगता है।

तुमसे मिलकर इमली मीठी लगती है,
तुमसे बिछड़कर शहद भी खारा लगता है।

रात हमारे साथ तू जागा करता है,
चांद बता तू कौन हमारा लगता है।

तितली चमन में फूल से लिपटी रहती है,
फिर भी चमन में फूल कुंआरा लगता है।

कैफ वो कल का कैफ कहां है आज मियां,
ये तो कोई वक्त का मारा लगता है।

Sunday, June 19, 2011

तू इस मशीन का पुर्जा है, तू मशीन नहीं

हिन्दी में नई कविता आंदोलन के प्रमुख कवियों में एक दुष्यंत कुमार का कविता संग्रह जलते हुए वन का बसंत और काव्य नाटक एक कंठ विषपायी भी साहित्यिक हलके में खासे चचर्ति रहे हैं, लेकिन पाठकों में व्यापक लोकप्रियता उन्हें आखिरी किताब साये में धूप की गजलों से मिली। आज भी दुष्यंत की गजलें वैसे ही पढ़ी जा सकती हैं, जैसे आठवें दशक में पढ़ी गइं। उदाहरण के लिए पढि.ए उनकी यह गजल-

गजल/दुष्यंत कुमार

तुम्हारे पांव के नीचे कोई जमीन नहीं।
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यकीन नहीं॥

मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहंू,
मैं इन नजारों का अंधा तमाशबीन नहीं।

तेरी जुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह,
तू एक जलील-सी गाली से बेहतरीन नहीं।

तुम्हीं से प्यार जताएं तुम्हीं को खा जाएं,
अदीब यों तो सियासी हैं पर कमीन नहीं।

तुझे कसम है खुदी को बहुत हलाक न कर,
तू इस मशीन का पुर्जा है, तू मशीन नहीं।

बहुत मशहूर है आएं जरूर आप यहां,
ये मुल्क देखने के लायक तो है, हसीन नहीं।

Thursday, June 16, 2011

मरियम की शक्ल में, कभी सीता के रूप में

जिस देश में स्त्रियों को पूजने की बात कही जाती है, उसी देश में स्त्रियां तरह-तरह के अत्याचार-उत्पीडऩ की शिकार हैं- इससे बड़ा पाखंड भला और क्या हो सकता है? अगर कैफ भोपाली की तरह सभी लड़कियों को प्यार करते तो लिंगानुपात में असंतुलन क्यों आता? पढि़ए कैफ साहब की यह गजल...

खुशरंग तितलियां नजर आती हैं लड़कियां,
घर को बहिश्तजार बनाती हैं लड़कियां।

या रब तेरी जमीन की रुदाद क्या कहूं,
लड़के उजाड़ते हैं, बसाती हैं लड़कियां।

चावल हैं कहकशां से तो रोटी है चांद सी,
क्या-क्या हसीन चीजें खिलाती हैं लड़कियां।

स्कूल में भी करती हैं उस्तानियों के काम,
घर पर भी मां का हाथ बटाती हैं लड़कियां।

मरियम की शक्ल में, कभी सीता के रूप में,
सूरज हथेलियों पे उठाती हैं लड़कियां।

ऐ कैफ देवियां हैं खुलूसो-वफा की ये,
वो कौन है जिसे नहीं भाती हैं लड़कियां।

Tuesday, June 14, 2011

आदमी फिरते हैं सरकारी बहुत!

यारी-दुश्मनी भी क्या जिंदगी की धूप-छांव की तरह है? कैफ भोपाली का एक शेर है- इधर आ रकीब मेरे, तुझे मैं गले लगा लूं/मेरा इश्क बेमजा था तेरी दुश्मनी से पहले। अब पढि़ए कैफ साहब की सलाहियत भरी यह छोटी-सी गजल...

मत किसी से कीजिए यारी बहुत
आज की दुनिया है व्यापारी बहुत!

वो हमारे हैं न हम उनके लिए,
दोनों जानिब है अदाकारी बहुत!

चार जानिब देखकर सच बोलिए,
आदमी फिरते हैं सरकारी बहुत!

कैफ साहब कोई मस्जिद देखिए,
मयकदे से हो चुकी ख्वारी बहुत!

Monday, June 13, 2011

इक दिन काजल हो गया चांद

चांद सबको प्यारा ही लगता है। कवियों और शायरों ने चांद को विषय बनाकर बहुत सारी कविताएं लिखी हैं। अब एक गजल कैफ भोपाली की भी पढ़ लीजिए...

गजल/कैफ भोपाली

जाने कैसा रोग लगा है सूखा डंठल हो गया चांद।
रंगत पीली पड़ते-पड़ते बिल्कुल पीला हो गया चांद॥

जाने कौन था आनेवाला मुंह न दिखाया जालिम ने,
रात को तारे गिनते-गिनते आखिर पागल हो गया चांद॥

हंसता चेहरा सबने देखा किसने देखी दिल की आग,
धीरे-धीरे जलते-जलते इक दिन काजल हो गया चांद॥

माहवशों की खातिर उसने बदले कितने-कितने रूप,
इक दिन बिंदिया, इक दिन कंगन, इक दिन पायल हो गया चांद॥

खून-खराबा करके जमीं पर चांद पे इंसां जा पहुंचा,
होगी वहां भी अब खूंरेजी, समझो मकतल हो गया चांद॥

Tuesday, June 7, 2011

एक प्यासी रूह की आवाज आती है

पर्यावरण बचाए रखने के लिए वृक्ष लगाओ का नारा तो बहुत लगाया जाता है लेकिन इसका कितना असर पड़ता है, हम सभी जानते हैं। वृक्षों को बचाने की एक बेहद मार्मिक अपील कैफ भोपाली के इस शेर में है- चौराहे के इस पेड़ को मत काटिए लोगो/यह है किसी मासूम परिंदे की निशानी। अब पढि़ए हरदिल अजीज कैफ की यह गजल-

हमेशा एक प्यासी रूह की आवाज आती है,
कुओं से, पनघटों से, नद्दियों से, आबशारों से।

न आए पर न आए वो उन्हें क्या-क्या खबर भेजी,
लिफाफों से, खतों से, दुख भरे पर्चों से, तारों से।

जमाने में कभी भी किस्मतें बदला नहीं करतीं,
उमीदों से, भरोसों से, दिलासों से, सहारों से।

वो दिन भी हाय क्या दिन थे, जब अपना भी तअल्लुक था,
दशहरों से, दिवाली से, बसंतों से, बहारों से।

कभी पत्थर के दिल ऐ कैफ पिघले हैं न पिघलेंगे,
मुनाजातों से, फरियादों से, चीखों से, पुकारों से।

Saturday, June 4, 2011

सरों को काट के सरदारियां नहीं चलतीं

1917 से 1997 तक जिंदगी का सफर तय करने वाले मुशायरों के बादशाह कैफ भोपाली अपनी शायरी के फलसफे के बारे में कहते हैं- मंजिल न कोई राहगुजर चाहता हूं मैं/अपने ही दिल तक एक सफर चाहता हूं मैं। भोपाल के संभवत: सबसे लोकप्रिय शायर रहे कैफ साहब की पढि़ए यह गजल-

गजल/कैफ भोपाली

ये दाढिय़ां ये तिलकधारियां नहीं चलतीं
हमारे अहद में मक्कारियां नहीं चलतीं।

कबीले वालों के दिल जोडि़ए मेरे सरदार,
सरों को काट के सरदारियां नहीं चलतीं।

बुरा न मान अगर यार कुछ बुरा कह दे,
दिलों के खेल में खुद्दारियां नहीं चलतीं।

छलक-छलक पड़ीं आंखों की गागरें अक्सर,
संभल-संभल के ये पनहारियां नहीं चलतीं।

जनाबे-कैफ ये दिल्ली है मीरो-गालिब की,
यहां किसी की तरफदारियां नहीं चलतीं।

Friday, June 3, 2011

जरूरी नहीं कि प्रेम-प्रेम का जाप किया जाए

एक अच्छी प्रेम कविता के लिए यह कतई जरूरी नहीं है कि प्रेम-प्रेम का जाप किया जाए। वरिष्ठ कवि भगवत रावत की यह कविता पढ़कर बखूबी इसे महसूस किया जा सकता है-

घिरा हुआ दुखों से/भगवत रावत

घिरा हुआ दुखों से
जब-जब सोचता हूं
अपना घर
अपनी दुनिया
और लिखते हुए
जब लिखता हूं एक शब्द
तुम
तो तुम ही तो होती हो
घर के हर कोने से बोलती हुई
परेशान

टटोलता हुआ उंगलियों से
अपने दुखों के अंधेरे में
जो कुछ उठाता हूं
अपने आसपास से
वह तुम्हारा चेहरा ही तो होता है
हर बार
मेरी कमजोर
उंगलियों पर सधा

इस समय भी
जब मैं लिख रहा हूं
तो एक छोटे-से बच्चे की तरह
किसी छपे हुए फूल पर
झीना कागज रखकर
तुम्हें ही तो उतार रहा हूं
अपने दुखों में।

Wednesday, June 1, 2011

स्त्री के जीवन पर बोझ ही बोझ है

औरत की जिंदगी उतनी सहज-सरल नहीं है, जैसे पुरुषों की। एक स्त्री का जीवन तरह-तरह के बोझ से लदा होता है- जैसे कि सजना-धजना भी। वरिष्ठ कवि भगवत रावत की यहां दी जा रही दो कविताओं को पढ़कर इसका एहसास किया जा सकता है-

बाहर जाने की जल्दी

उसकी बिंदी की शीशी नहीं मिल रही है
खोपरे के तेल का डिब्बा
धोखे से लुढ़क गया है
टूटे दांतों वाला कंघा
बच्चों ने कहीं गुम कर दिया है
पाउडर का लंबा वाला डिब्बा
खाली पड़ा हुआ है
पिछले साल खरीदी साड़ी पर
अभी तक लोहा नहीं हुआ है
बालों को लंबा करने वाली चोटी उसने
हड़बड़ी में पता नहीं कहां धर दी है
उसे बाहर जाने की जल्दी है
पर जब तक
ये सारी चीजें
उसे मिल नहीं जाएंगी
वह क्या मुंह लेकर बाहर जाएगी।

उसकी थकान

कोई लंबी कहानी ही
बयान कर सके शायद
उसकी थकान
जो मुझसे
दो बच्चों की दूरी पर
न जाने कबसे
क्या-क्या सिलते-सिलते
हाथों में
सुई-धागा लिए हुए ही
सो गई है।