साथ-साथ

Wednesday, April 6, 2011

ये बस्ती कोई जंगल तो नहीं है

ताज भोपाली की शायरी में जितनी सादगी है, उतनी ही संजीदगी भी है। इन्हीं दो चीजों से वे अपनी गजलों में जादू जगाते हैं। पढि़ए यह गजल-

ये जो कुछ आज है कल तो नहीं है
ये शामे-गम मुसलसल तो नहीं है।

मैं अक्सर रास्तों में सोचता हूं
ये बस्ती कोई जंगल तो नहीं है।

मैं लम्हा-लम्हा मरता जा रहा हूं
मेरा घर मेरा मकतल तो नहीं है।

किसी पर छा गया, बरसा किसी पर
वो इक आवारा बादल तो नहीं है।

यकीनन गम में कोई बात होगी
ये दुनिया यूं ही पागल तो नहीं है।

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