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Saturday, November 27, 2010

दंग थे दंगों के कारोबारी

कवि-कथाकार गंगाप्रसाद विमल की खबरें सीरीज की चौथी कविता प्रस्तुत है। यह किताबघर से छपे उनके नए कविता संग्रह खबरें और अन्य कविताएं से ली गई है।

खबरें : चार/गंगाप्रसाद विमल

दंगों के कारोबारी दंग थे खबर सुन
थोड़ी उम्मीद से बड़ी पाकर घटना
चकित थे वे आशातीत

अपने आकाओं को
चकाचक चलबोलों से
सुनाई उन्होंने दुहराते हुए
खबर दंगों की
दंग थे दंगों के कारोबारी

फायदा ही फायदा था दुहरा-तिहरा
औने-पौने मिलेंगी जगहें
सस्ते मिलेंगे विधर्मी मजदूर
डरे
पर निष्ठावान होंगे कामगार
आखिर दंगों ने छोड़ ही दी छाप
शांति की
शांति से करेंगे वे काम
और शांति से फिर
अगले दंगे करने वाले दंगों में
शामिल हो
अपनी बहियों में देखेंगे
शुभ-लाभ...

पांच बजते ही तलाशी हुई
यही थी खबर आतंक की
पांच वह शाम के थे या सुबह के
पांच बजे थे सिर्फ
यही थी खबर आतंक की
पंचायतों में

समूह में आए थे खोजी
आतंकवादी भी
समूह में ढेर हुए कुछ
और न जाने कहां
अंतर्धान हुए आतंकवादी
सरकारी पूछताछ जारी है, जारी रहेगी।

Friday, November 26, 2010

घर में मातम था खुशी का!

हैरान होने के बजाय कवि-कथाकार गंगाप्रसाद विमल के ताजा कविता संग्रह खबरें और अन्य कविताएं से ली गई यह कविता पढि.ए तो पता चलेगा कि किन घरों में खुशी का मातम हुआ  करता है। यथार्थ कैसे व्यंग्य में बदल जाता है, इसकी बानगी है यह कविता।

खबरें : तीन/गंगाप्रसाद विमल

मरे थे नेता जी
खबर थी अपूरणीय क्षति की
फिर भी जगह भरनी थी
खुश थे वे-
शवयात्रा में वे खुश-खुश चेहरे देखो
कल उनमें से एक
बैठेगा इसी कुर्सी पर
और हम उसके गले में डालेंगे माला

स्मृति सभा के भाषण
पिछली मृत्युओं जैसे ही थे विशेषण मुक्त
विशेषण वैसे ही रहते हैं सबके लिए
समान निरर्थक
केवल बदल जाती हैं संज्ञाएं
घर में मातम था खुशी का
किसी को मिलनी थी जायदाद
किसी को उम्मीद थी करूणा के बहाने
कुर्सी मिलने की
किसी को तमाम चैनलों में
अपनी तस्वीर देखकर खुशी थी
खबर मातम की भी
फैला देती है खुशी, एक और
नेता खुश था
उसका भी स्वार्थ था कुछ-कुछ छिपा हुआ
नेता के नाम से उसने
खुद को चमकाया चांदी के जूते से
नेता को कब्र में दफना-
दफना दी उसने पिछली संज्ञाएं
और नए विशेषणों से
आरूढ़ हो जाएगा
नई यात्राओं की दिशा में

खबर
दिशाओं तक फैला गई थी खोजते नई दिशा।

Thursday, November 25, 2010

दुर्घटना की तस्वीर के बाद

सुपरिचित कवि-कथाकार गंगाप्रसाद विमल की नई कविता पुस्तक खबरें और अन्य कविताएं से ली गई खबरें सीरीज की पहली कविता प्रस्तुत है। इस कविता में जो सच्चाई है, वह हम-आप रोज अखबार में और टीवी के परदे पर देखते हैं।
खबरें :एक/गंगाप्रसाद विमल

सविस्तार लिखूंगा खबर
जो दिखे
और दुर्घटना की तस्वीर के बाद
सुंदरी का चित्र
सुरापात्र लहराते हुए हो

मातमी दृश्य था खबर में
गमलों में ताजा फूल
खबरी का चेहरा
बरसों बसा रहने वाला था स्मृति में
तभी हवाई दुर्घटना की खबर आई
थोड़ा ब्रेक सह लें
लॉटरी का फैसला आएगा अभी

सिर्फ बाढ़ से मरे कुछ हजार
करोड़पति हुए अभिनेता
भूकंप ने तोड़े घर
मरे बच्चे
विस्तार से लिखूंगा खबर पर्दे पर
फिलहाल देखें बार बालाएं।

Saturday, November 20, 2010

धर्म से बड़ा एक पूजा स्थल

जनकवि बाबा नागार्जुन ने अपनी एक कविता में धर्म से भी बड़े पूजा स्थल की शिनाख्त की है। यह कविता उन्हें मिली भी अपने गांव तरौनी में। पढि.ए 1960 में लिखी यह कविता...

जोड़ा मंदिर/ नागार्जुन
कच्ची सड़क के किनारे ही
देखा, पास-पास छोटे-छोटे मंदिरों का एक जोड़ा
पूछा एक घसियारिन से-
अरी ओ, किसने बनवाया है
बीच परती-पांतर में यह जोड़ा मंदिर?

खुर्पी सहित दायां हाथ उठाकर
करती हुई उधर ही इंगित
बोली वह ठिगनी घसियारिन-
थापित हुई है वहां पर पिंडी
भोकर राउत और मुंगिया की माई की
बूढ़े-बूढ़ी की समाधि पर
खड़ा कर दिया है बेटे ने जोड़ा मंदिर
धन्य वैसे मां-बाप
धन्य वैसे पूत...
खड़ा-खड़ा ही हो गया तनिक ध्यानस्थ
झुका लिया सर
भोकर राउत और मुंगिया की माई की स्मृति में

दूसरे दिन
पोखरे के भीटे पर
मौलश्री की छांह में
आराम करता मिला सरजुग
कुशल-समाचार पूछा-पूछी के तुरत बाद
कहा मैंने सरजुग राउत से-
एहो सरजुग, बाप-मां की समाधि पर
तरौनी गांव में कहां किसी ने खड़ा किया था जोड़ा मंदिर!
पतली मूंछोंवाला सांवरा ग्रामीण युवक
सरजुग राउत
बोला निरभिमान स्वर में-
अपने ही हाथों बूढ़े ने पारसाल
लगाया था पांच कटूठे में गन्ना
उसी में से पांच-एक सौ
लगा दिए हैं उनके नाम पर
माह के भीतर ही दोनों जनों ने मूंद ली आंखें
क्रिया-कर्म भोज-भंडारे में खर्च हो गए करीब हजार रूपए
लेकिन, खुद मुझे तो हुआ ही नहीं संतोष उससे...

फागुन जाते-जाते इस बार
मिलवाले ने पर्ची दी
राटन पर तौला आया गन्ना
दो दिन बाद हाथ में पड़े
नौ नम्बरी, सात दस के, एक के छै...
गांव में ही मिल गइं
सीमेंट की दो बोरियां, पक्की इंट करीब तीन हजार
बूढे.-बूढ़ी के मंदिर हो गए सहज ही तैयार...

इतना कहकर
झुका लिया सर
संकोच वश टूंगने लगा दूब
पतली मूंछोंवाला सरजुग राउत

थोड़ा आगे बढ़कर
उसकी पीठ पर फिराता हुआ हाथ
गदगद होता हुआ कहा मैंने-
आज तक इस इलाके में
कहां सूझी थी किसी को यह बात!
देश-विदेश पूरा दुनिया-जहान
धांग आया हूं मैं...
कहां कहीं देखा है
मां-बाप के नाम बना जोड़ा मंदिर
वाह सरजुग, धन्य हो तुम!

हुआ संकोच भंजन
तब बोले
सरजुग राउत उर्फ सरजुग यादव-
हमारे बूढ़े-बूढ़ी में रहा करता था हद से ज्यादा मेल
वैसा नहीं देखा होगा किसी ने कहीं
सो हम सब खुद हैं साक्षी
सभी को है पता अच्छी तरह से
हमारे बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी हुआ झगड़ा-तकरार
हमारे बूढ़े-बूढ़ी के बीच कहां कभी रही अदावत
कहावत भी है कि एक प्राण-दो देह
बिलकुल उसी का नमूना थे हमारे बूढ़े-बूढ़ी
इसी कारण सूझी यह बात
बना दिया है जोड़ा मंदिर
चढ़ा आता हूं जाकर
दोनों जनों की पिंडियों पर फूल
उस सतकठवा खेत से तीन धूर जमीन
उत्सर्ग की जा चुकी है बूढ़े-बूढ़ी के नाम पर
मेरा विचार है, जल्द से जल्द
लिखा-पढ़ी भी हो ही जाय...

फिर मेरी नजरों को थाहता बोला सरजुग
फुसफुसाहट के स्वर में-
तरौनी गांव के बाबू-भैया सभी
हंसी उड़ाते हैं मेरी!
इस पर कहा मैंने सरजुग से-
धतू पगले, ऐसा भी कोई बोले!
पता नहीं है तुझे?
तरौनी गांव के बाबू-भैया लोग
हंसी उड़ाते हैं मेरी भी!

Thursday, November 18, 2010

जिम्मेदार ठहराए जाएंगे मच्छर...

सुपरिचित कवि-कथाकार गंगाप्रसाद विमल का पिछले ही दिनों कविता संग्रह आया है- खबरें और अन्य कविताएं। यह कविता पुस्तक छपी है किताबघर प्रकाशन से। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अनुवाद के प्रोफेसर रहे विमल जी की कविताएं और कहानियां प्रमुख भारतीय भाषाओं सहित अंग्रेजी व अन्य विदेशी भाषाओं में भी अनूदित हो चुकी हैं।

इस बार : दो/गंगाप्रसाद विमल

अमीरों के बुद्धू बक्से में
हमारी तकलीफों के लिए
जिम्मेदार ठहराए जाएंगे
मच्छर। अशिक्षा। कुपोषण
फिर सुंदरियों के नंगे जिस्म
मुस्कराते चेहरे
परोसेंगे मौन सुख
अमीरों को
थोड़ी तसल्ली देंगे

वे अपनी तिजोरियों से
खनखनाते सिक्के निकालेंगे और
उछाल देंगे विज्ञापनों में

विज्ञापनों में बोए जाएंगे
हमारे सपनों के बीज
अपनी औषध कंपनियों से
निकालेंगे नई दवाएं
अपने लिए पैदा करेंगे
यौनवर्धक गोलियां

और जब हम
निहत्थे
उन्हीं के प्रजातंत्रों में
मांगेंगे हक तो हम पर
बरसा देंगे गोलियां
जनमत की सुरक्षा के नाम

इस बार कम ही होगी वर्षा
बादलों को विज्ञानसम्मत दिशा से
मोड़ देंगे अपनी अय्याशगाहों की ओर
उधर हम डूबेंगे कोसी में
बेतवा या
ब्रह्मनद में
इधर वे बटोरेंगे हमीं से
चंदा, कपड़े और दवाएं

उनके पोते-पोतियों के गैर-सरकारी केंद्र
करेंगे दान पर कब्जा
और हथियारबंद उनके सेवक
दलालों की तरह
मुटियाएंगे चुपचाप

Tuesday, November 16, 2010

जीने की कला

इसी शीर्षक का एक काव्य संकलन है त्रिलोचन जी का, जिसका प्रतिनिधित्व करती है यह कविता। जीवन, कला और दुनिया के बारे में बड़ी सहजता से बहुत कुछ कह जाती है यह कविता...

जीने की कला/त्रिलोचन
भूख और प्यास
आदमी से वह सब कराती है
जिसे संस्कृति कहा जाता है।

लिखना, पढ़ना, पहनना, ओढ़ना
मिलना, झगड़ना, चित्र बनाना, मूर्ति रचना
पशु पालना और उनसे काम लेना यही सारे
काम तो इतिहास हैं मनुष्य के सात द्वीपों और
नौ खंडों में।

आदमी जहां रहता है उसे देश कहता है। सारी
पृथ्वी बंट गई है अनगिनत देशों में। ये देश
अनेक
देशों का गुट बनाकर अन्य गुटों से अकसर
मार काट करते हैं।

आदमी को गौर से देखो। उसे सारी कलाएं, विज्ञान
तो आते हैं। जीने की कला उसे नहीं आती।

Monday, November 15, 2010

ऐसे भी दिखता है जीवन

साधारण जीवन के असाधारण कवि हैं त्रिलोचन। उनके काव्य संसार में मामूली कही और समझी जानेवाली चीजें और जीवन स्थितियां चमकती, बल्कि कौंधती हैं। उनकी कविता हमें थोड़ा और मनुष्य बना सकती है, अगर हम बनना चाहें। पढि.ए यह कविता...

सब्जी वाली बुढि.या
त्रिलोचन

मेथी और पालक की
दो-दो हरी गडिडयां
लस्सन और प्याज की
चार-चार पोटियां
बुढि.या कह रही थी
ग्राहक से...
ले लो
यह सब
ले लो
कुल पचास पैसे में

ग्राहक बोला-
जो कुछ लेना था
ले चुका
यह सब क्या करूंगा
रखने की चीज नहीं

बुढि.या ने सांस ली
और कहा-
दिन हैं ये ठंड के
ले लो
तो मैं भी घर को जाऊं
गाहक ने सुना नहीं
और दाम चुकाकर
चला गया।

Friday, November 12, 2010

सुखी रहे तेरी रात

फैज अहमद फैज ने कुछ बहुत अच्छे गीत लिखे हैं। लोगीत जैसी तासीर रखने वाला उनका यह गीत पढि.ए और गुनगुनाइए भी...

सुखी रहे तेरी रात/फैज अहमद फैज

सुखी रहे तेरी रात चंदा,
सुखी रहे तेरी रात

दूर है चैन की नगरी चंदा
दूर है सुख का गांव
जाने कैसे राह कटेगी
हारे थक-थक पांव

ओट में बैठे बैरी चंदा
थाम ले मेरा हाथ
सुखी रहे तेरी रात

तेरी दया से दीप जला है
इस पापन के द्वारे
जाने कैसे भाग जगे हैं
भूल गए दुख सारे

मन कांपे जी धड़के चंदा
छूट न जाए साथ
सुखी रहे तेरी रात

Thursday, November 11, 2010

अभी उम्र पड़ी है

अंधेरे में दूर कहीं रोशनी की तरह चमकते हैं फैज। उनकी नज्में थके और जख्मी मन को बड़ी ताकत देती हैं। पढि.ए उनकी यह छोटी-सी कविता...

ख्वाब बसेरा/फैज अहमद फैज

इस वक्त तो यूं लगता है अब कुछ भी नहीं है
महताब न सूरज न अंधेरा न सवेरा
आंखों के दरीचों में किसी हुस्न की झलकन
और दिल की पनाहों में किसी दर्द का डेरा
मुमकिन है कोई वहम हो मुमकिन है सुना हो
गलियों में किसी चाप का एक आखिरी फेरा
शाखों में खयालों के घने पेड़ की शायद
अब आ के करेगा न कोई ख्वाब बसेरा
इक बैर, न इक महूर न इक रब्त, न रिश्ता
तेरा कोई अपना न पराया कोई मेरा

माना कि ये सुनसान घड़ी सख्त बड़ी है
लेकिन मेरे दिल ये तो फकत एक घड़ी है
हिम्मत करो जीने की अभी उम्र पड़ी है

Wednesday, November 10, 2010

डर-डर कर जीने के खिलाफ

डर-डर कर जीने की आदत दरअसल एक किस्म की बीमारी ही है, जो आदमी को अनिश्चय की राह पर धकेलती है और निर्णायक  नहीं बनने देती। डर-डरकर जीने के खिलाफ पढि.ए फैज अहमद फैज की यह कविता और इस पर अमल कीजिए, निश्चय ही जिंदगी बेहतर हो जाएगी।

तुम अपनी करनी कर गुजरो/फैज अहमद फैज

अब क्यूं उस दिन का जिक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जाएगा
और सारे गम मिट जाएंगे
जो कुछ पाया खो जाएगा
जो मिल न सका वो पाएंगे

ये दिन तो वही पहला दिन है
जो पहला दिन था चाहत था
हम जिसकी तमन्ना करते रहे
और जिससे हरदम डरते रहे
ये दिन तो कितनी बार आया
सौ बार बसे और उजड़ गए
सौ बार लुटे और भर पाया

अब क्यूं उस दिन की फिक्र करो
जब दिल टुकड़े हो जाएगा
और सारे गम मिट जाएंगे
तुम खौफ-ओ-खतर से दरगुजरो
जो होना है सो होना है
गर हंसना है तो हंसना है
गर रोना है तो रोना है
तुम अपनी करनी कर गुजरो
जो होगा देखा जाएगा