यह कविता भी कवि बद्रीनारायण की ही है-प्रार्थना की शैली में। अपनी इस शैली के कारण ही यह मार्मिक भी है और महसूस कर सकें तो इसमें बहुत बारीक किस्म का व्यंग भी है...
भैरवी भजन/बद्रीनारायण
मेरी अरज सुनो भगवान
उसे एक बेटा दिया, सात लोटे
मुझे सात बेटे पर एक लोटा
वह भी फूटा।
हे कृपानिधान
क्यों नहीं दी मुझे काठ की बीवी
उसमें इच्छाएं क्यों दीं
इतनी बारिश दी तो न चूनेवाला छप्पर क्यों नहीं दिया
इतनी ठंडक दी तो पूरा कपड़ा क्यों नहीं दिया
जितना मुझे दुख दिया, उतने आंसू क्यों नहीं दिए
हे समदर्शी, ऐसा क्यों किया
उसे धन दिया तो लालच क्यों दिया
दंभ क्यों दिया
हे प्रतिपालक,
खाली पेट को रोटी क्यों नहीं दी
दर्द दिया मुझे तो उसे दवा क्यों दी।
साथ-साथ
Thursday, July 29, 2010
Wednesday, July 28, 2010
बद्रीनारायण की निगाह में स्त्री
कविता में स्त्री की न जाने कितनी छवियां हैं। लेकिन पता नहीं कि वे स्वयं स्त्रियों को कितनी प्रिय-अप्रिय लगती हैं- बनावटी लगती हैं, खुशामदी या कि सचमुच जीवन के मर्म का उदूघाटन करने वाली। बहरहाल, एक कविता बद्रीनारायण की भी पढि.ए...
डरते-डरते
डरते-डरते मैंने जनम लिया
मेरे जनम पर नहीं बजीं बधाइयां
मुझे प्यार करना
मुझमें भोर की लाली
सांझ की हवा
मुझे प्यार करना
डरते-डरते मैंने पांच पार किए
डरते-डरते दस
डरते-डरते मैं बीस के दरवाजे पर खड़ी हूं
मुझे दगा मत देना
डरते-डरते मैं गुलदाउदी
डरते-डरते हजारा
मुझे संग ही रखना
डरते-डरते मैं बूढ़ी हो जाऊंगी
डरते-डरते मर जाऊंगी
मुझे-
डरते-डरते याद करना।
डरते-डरते
डरते-डरते मैंने जनम लिया
मेरे जनम पर नहीं बजीं बधाइयां
मुझे प्यार करना
मुझमें भोर की लाली
सांझ की हवा
मुझे प्यार करना
डरते-डरते मैंने पांच पार किए
डरते-डरते दस
डरते-डरते मैं बीस के दरवाजे पर खड़ी हूं
मुझे दगा मत देना
डरते-डरते मैं गुलदाउदी
डरते-डरते हजारा
मुझे संग ही रखना
डरते-डरते मैं बूढ़ी हो जाऊंगी
डरते-डरते मर जाऊंगी
मुझे-
डरते-डरते याद करना।
Monday, July 26, 2010
सावन का महीना
कवि बद्रीनारायण की एक अलग तरह की कविता। ठीक अलग तरह की भी नहीं, क्योंकि यहां भी उनका लोक स्वभाव कायम है। बात दिल्ली की है और इसमें व्यंग्य भी है और विडम्बना भी...
बाबू रामचंदर को एक चिढ़ावन/बद्रीनारायण
दिल्ली में रहता है सावन का महीना
हाय बाबू रामचंदर, तुम पोंछते हो पसीना
दिल्ली में रहती है फारस की हसीना
हाय बाबू रामचंदर, तेरा फट गया पश्मीना
पश्मीने में क्या अब भी लटकता है
लाल-लाल फुलेना
दिल्ली की सड़कों पर बिकता है पुदीना
न जाने, मेरे रामचंदर को
किसने बेचा-कीना
दिल्ली में सागर है, सागर से बढि.या मीना
हाय बाबू रामचंदर, तुम संभल-संभलकर पीना
कौन-कौन देखे तूने दिल्ली में सनीमा
और सब नग हैं, एक है नगीना
दिल्ली में खो गए, रामचंदर सिंह "फहिमा"
हाय बबुआ रामचंदर! हाय भइया रामचंदर!
बाबू रामचंदर को एक चिढ़ावन/बद्रीनारायण
दिल्ली में रहता है सावन का महीना
हाय बाबू रामचंदर, तुम पोंछते हो पसीना
दिल्ली में रहती है फारस की हसीना
हाय बाबू रामचंदर, तेरा फट गया पश्मीना
पश्मीने में क्या अब भी लटकता है
लाल-लाल फुलेना
दिल्ली की सड़कों पर बिकता है पुदीना
न जाने, मेरे रामचंदर को
किसने बेचा-कीना
दिल्ली में सागर है, सागर से बढि.या मीना
हाय बाबू रामचंदर, तुम संभल-संभलकर पीना
कौन-कौन देखे तूने दिल्ली में सनीमा
और सब नग हैं, एक है नगीना
दिल्ली में खो गए, रामचंदर सिंह "फहिमा"
हाय बबुआ रामचंदर! हाय भइया रामचंदर!
Saturday, July 24, 2010
कैसे बच जाती है अच्छाई!
कभी आपने सोचा है कि तमाम दुष्टताओं के बावजूद आखिर अच्छाई बच कैसे जाती है? इस पहेली को सुलझाया है अपनी एक शानदार कविता में कवि बद्रीनारायण ने। यह कविता भरोसे की रोशनी बनकर अंधेरे में भी चमकती रहती है...
हिंस्र आत्माएं पहचान ली जाती हैं/बद्रीनारायण
लकड़ी में छुपे तो बढ़ई चीर देता है
लोहे में काटता है लोहार
सोने में गला देता है सोनार
हिंस्र आत्माएं पहचान ली जाती हैं
मिटूटी में छुपे तो कोड़ देता है किसान
दूध में हंस चीन्ह लेता है
काले घोड़े की नाल में सईस को
पहले हो जाता है भान
राजा के नग में बैठे तो
प्रजा जान जाती है
वजीर की बुद्धि में
जान जाते हैं सिपहसालार
घुसना मना है
हवा में
पानी में
पूरी दुनिया में उठती मिटूटी की गंध में
पुआल में छुपे तो
धौरा बैल जान जाता है
मौसम में छुपे तो घाघ
गाय के खुरों में घुसने पर वैद्यराज
टन्ना, कबडूडी, फुटबॉल में पहचान जाते हैं बच्चे
जहां भी जाती हैं हिंस्र आत्माएं
पहचान ली जाती हैं
पहचान ली जाती हैं तो
खदेड़ दी जाती हैं।
हिंस्र आत्माएं पहचान ली जाती हैं/बद्रीनारायण
लकड़ी में छुपे तो बढ़ई चीर देता है
लोहे में काटता है लोहार
सोने में गला देता है सोनार
हिंस्र आत्माएं पहचान ली जाती हैं
मिटूटी में छुपे तो कोड़ देता है किसान
दूध में हंस चीन्ह लेता है
काले घोड़े की नाल में सईस को
पहले हो जाता है भान
राजा के नग में बैठे तो
प्रजा जान जाती है
वजीर की बुद्धि में
जान जाते हैं सिपहसालार
घुसना मना है
हवा में
पानी में
पूरी दुनिया में उठती मिटूटी की गंध में
पुआल में छुपे तो
धौरा बैल जान जाता है
मौसम में छुपे तो घाघ
गाय के खुरों में घुसने पर वैद्यराज
टन्ना, कबडूडी, फुटबॉल में पहचान जाते हैं बच्चे
जहां भी जाती हैं हिंस्र आत्माएं
पहचान ली जाती हैं
पहचान ली जाती हैं तो
खदेड़ दी जाती हैं।
खेल खेल में बड़ी बात
कवि बद्रीनारायण की एक छोटी-सी कविता है - आइस-पाइस. यह दरअसल बच्चों का देसी खेल है- चकमा देनेवाला खेल खेल में कविता में कैसे बड़ी बात कही जा सकती है, इसका उदाहरण है यह कविता। मगर ऐसी उदूभावना कतई खेल नहीं है...
आइस-पाइस/बद्रीनारायण
बैठे हैं हम
गोल में
पहाड़ पर
खेलने आइस-पाइस
हमने कहा
नदी आइस-पाइस
पेड़-पौधे हरियाली आइस-पाइस
आइस-पाइस बादल
तूफान आइस-पाइस
हम ताक में हैं कि
कह दें
मौत आइस-पाइस।
आइस-पाइस/बद्रीनारायण
बैठे हैं हम
गोल में
पहाड़ पर
खेलने आइस-पाइस
हमने कहा
नदी आइस-पाइस
पेड़-पौधे हरियाली आइस-पाइस
आइस-पाइस बादल
तूफान आइस-पाइस
हम ताक में हैं कि
कह दें
मौत आइस-पाइस।
Thursday, July 22, 2010
बारिश आएगी तो प्रेमपत्र ही गलाएगी
कवि बद्रीनारायण की कविताओं की इमारत लोक की बहुत मजबूत नींव पर खड़ी है। उनके बारे में असद जैदी ने लिखा है- वे अपनी पीढ़ी के उन दो-तीन कवियों में हैं, जिनकी कविता से एक साफ चेहरा और कुछ रास्ता निकलता नजर आता है। आज के हत्यारे समय को ध्यान में रखते हुए लगभग बीस बरस पहले लिखी बद्रीनारायण की बहुचर्चित कविता प्रेमपत्र पढि.ए...
प्रेमपत्र/बद्रीनारायण
प्रेत आएगा
किताब से निकाल ले जाएगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच नोच खाएगा
चोर आएगा तो प्रेमपत्र चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र पर दांव लगाएगा
ऋषि आएंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र
बारिश आएगी तो
प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आएगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र पर ही लगाई जाएंगी
सांप आएगा तो डंसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आएंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे।
प्रलय के दिनों में
सप्तर्षि, मछली और मनु
सब वेद बचाएंगे
कोई नहीं बचाएगा प्रेमपत्र
कोई रोम बचाएगा
कोई मदीना
कोई चांदी बचाएगा, कोई सोना
मैं निपट अकेला
कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र!
प्रेमपत्र/बद्रीनारायण
प्रेत आएगा
किताब से निकाल ले जाएगा प्रेमपत्र
गिद्ध उसे पहाड़ पर नोच नोच खाएगा
चोर आएगा तो प्रेमपत्र चुराएगा
जुआरी प्रेमपत्र पर दांव लगाएगा
ऋषि आएंगे तो दान में मांगेंगे प्रेमपत्र
बारिश आएगी तो
प्रेमपत्र ही गलाएगी
आग आएगी तो जलाएगी प्रेमपत्र
बंदिशें प्रेमपत्र पर ही लगाई जाएंगी
सांप आएगा तो डंसेगा प्रेमपत्र
झींगुर आएंगे तो चाटेंगे प्रेमपत्र
कीड़े प्रेमपत्र ही काटेंगे।
प्रलय के दिनों में
सप्तर्षि, मछली और मनु
सब वेद बचाएंगे
कोई नहीं बचाएगा प्रेमपत्र
कोई रोम बचाएगा
कोई मदीना
कोई चांदी बचाएगा, कोई सोना
मैं निपट अकेला
कैसे बचाऊंगा तुम्हारा प्रेमपत्र!
Tuesday, July 20, 2010
बरसात पर परवीन शाकिर की एक गजल
तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ
बचपने का साथ है, फिर एक-से दोनों के दुख
रात का और मेरा आंचल भीगता है साथ-साथ
वो अजब दुनिया कि सब खंजर-ब-कफ फिरते हैं और
कांच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ
बारिशे-संगे-मलामत में भी वो हमराह है
मैं भी भीगूं, खुद भी पागल भीगता है साथ-साथ
लड़कियों के दुख अजब होते हैं, सुख उससे अजीब
हंस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान
जिस्म और इकलौता कंबल भीगता है साथ-साथ
ऐसी बरसातें कि बादल भीगता है साथ-साथ
बचपने का साथ है, फिर एक-से दोनों के दुख
रात का और मेरा आंचल भीगता है साथ-साथ
वो अजब दुनिया कि सब खंजर-ब-कफ फिरते हैं और
कांच के प्यालों में संदल भीगता है साथ-साथ
बारिशे-संगे-मलामत में भी वो हमराह है
मैं भी भीगूं, खुद भी पागल भीगता है साथ-साथ
लड़कियों के दुख अजब होते हैं, सुख उससे अजीब
हंस रही हैं और काजल भीगता है साथ-साथ
बारिशें जाड़े की और तन्हा बहुत मेरा किसान
जिस्म और इकलौता कंबल भीगता है साथ-साथ
Friday, July 16, 2010
नरेंद्र जैन की कविता : रामलीला
गांव में चल रही
मथुरा की आदर्श रामलीला के राम
दिन में आकर मिले
तार-तार वस्त्रों में
आदर्श रामलीला मंडल मथुरा से जारी
ग्यारह रुपए की रसीद
श्रीयुत्ï नरेंद्र जैन के नाम काटते हुए
दिखलाई दे रहे उनके माथे
और चेहरे पर
बीती रात के शृंगार के चिन्ह
मैं
दुखी हुआ कि
मथुरा का वह फटेहाल बाशिंदा
यहां- कहां आ पहुंचा
उनके ठीक पीछे आए वे
जो बीती रात
अभिनय करते रहे जानकी का
विश्व हिन्दू परिषद के
शर्मनाक दावों के मध्य
यह कैसा साक्षात्कार
फटेहाल राम
और दरिद्र जानकी से
यहां
आनंदपुर
में !
मथुरा की आदर्श रामलीला के राम
दिन में आकर मिले
तार-तार वस्त्रों में
आदर्श रामलीला मंडल मथुरा से जारी
ग्यारह रुपए की रसीद
श्रीयुत्ï नरेंद्र जैन के नाम काटते हुए
दिखलाई दे रहे उनके माथे
और चेहरे पर
बीती रात के शृंगार के चिन्ह
मैं
दुखी हुआ कि
मथुरा का वह फटेहाल बाशिंदा
यहां- कहां आ पहुंचा
उनके ठीक पीछे आए वे
जो बीती रात
अभिनय करते रहे जानकी का
विश्व हिन्दू परिषद के
शर्मनाक दावों के मध्य
यह कैसा साक्षात्कार
फटेहाल राम
और दरिद्र जानकी से
यहां
आनंदपुर
में !
Monday, July 12, 2010
दो कवितायेँ परवीन शाकिर की
नृशंसता के पथरीले पठार पर जहां हर सफ़र लहूलुहान है, परवीन शाकिर की बहुतेरी कवितायें शीतल झरने की तरह फूटती हैं. अपनी कविताओं में बहुत सहेज कर उन्होंने कोमलता का एक ऐसा कोना सुरक्षित रखा है, जो तपते रेगिस्तान में हरी भरी क्यारी सरीखा जान पड़ता है. बानगी के तौर पर यहाँ उनकी दो कवितायें. पहली कविता है " अयादत " जिसका मतलब होता है - बीमार को देखने जाना. दूसरी कविता मौसम, बरसात को लेकर है.
: : अयादत : :
पतझड़ के मौसम में तुझको
कौन से फूल का तोहफा भेजूं
मेरा आँगन खाली है
लेकिन मेरी आँखों में
नेक दुआओं की शबनम है
शबनम का हर तारा
तेरा आँचल थाम के कहता है
खुशबू , गीत, हवा, पानी और रंग को चाहने वाली लड़की
जल्दी से अच्छी हो जा
सुबहे-बहार की आँखे कब से
तेरी नर्म हंसी का रस्ता देख रही हैं.
: : मौसम : :
चिड़िया पूरी भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है.
: : अयादत : :
पतझड़ के मौसम में तुझको
कौन से फूल का तोहफा भेजूं
मेरा आँगन खाली है
लेकिन मेरी आँखों में
नेक दुआओं की शबनम है
शबनम का हर तारा
तेरा आँचल थाम के कहता है
खुशबू , गीत, हवा, पानी और रंग को चाहने वाली लड़की
जल्दी से अच्छी हो जा
सुबहे-बहार की आँखे कब से
तेरी नर्म हंसी का रस्ता देख रही हैं.
: : मौसम : :
चिड़िया पूरी भीग चुकी है
और दरख़्त भी पत्ता पत्ता टपक रहा है
घोंसला कब का बिखर चुका है
चिड़िया फिर भी चहक रही है
अंग अंग से बोल रही है
इस मौसम में भीगते रहना
कितना अच्छा लगता है.
Thursday, July 8, 2010
नरेंद्र जैन की कविता : रंग आसमान से लिया
रंग आसमान से लिया
राख, धूल और रक्त से लिया रंग
कुछ आहट
प्रतीक्षा और खामोशी से
कविता के विचार से लिया रंग
कुछ रंग
बच्चे के पैरों की रफ़्तार से
एक बूँद
माथे से टपकते पसीने से
थोड़ा बहुत
गुजारे लायक
शब्दों से
रंग वहां भी रहे
जहां थापी जा रही थीं
हथेलियों में रोटियां
आखिरकार
कुछ रंग
भूख से लिया मैंने.
राख, धूल और रक्त से लिया रंग
कुछ आहट
प्रतीक्षा और खामोशी से
कविता के विचार से लिया रंग
कुछ रंग
बच्चे के पैरों की रफ़्तार से
एक बूँद
माथे से टपकते पसीने से
थोड़ा बहुत
गुजारे लायक
शब्दों से
रंग वहां भी रहे
जहां थापी जा रही थीं
हथेलियों में रोटियां
आखिरकार
कुछ रंग
भूख से लिया मैंने.
Monday, July 5, 2010
नरेंद्र जैन की कविता : बांस
मृतक की अर्थी से लेकर
दीवार से टिकी इस सीढ़ी तक
यह बांस ही है
पुलिस की लाठी से लेकर
हाट में बज रही बांसुरी तक
यह बांस ही है
इस खुरदुरे कागज़ से लेकर
मर्तबान में रखे अचार तक
यह बांस ही है
कविता
नहीं हो पाई इतनी दुर्लभ
यह
बांस ही है .
दीवार से टिकी इस सीढ़ी तक
यह बांस ही है
पुलिस की लाठी से लेकर
हाट में बज रही बांसुरी तक
यह बांस ही है
इस खुरदुरे कागज़ से लेकर
मर्तबान में रखे अचार तक
यह बांस ही है
कविता
नहीं हो पाई इतनी दुर्लभ
यह
बांस ही है .
Sunday, July 4, 2010
नरेंद्र जैन की कवितायें
आठवें दशक से अबतक नरेंद्र जैन की इतनी कवितायें आ चुकी हैं कि उनके कवि की एक मुकम्मल तस्वीर बनती है. और, एक वाक्य में कहें तो उनकी कविता दृश्य से शुरू होकर परिदृश्य तक जाती है. उनकी कविता में आसपास के जीवन और घटित होते हुए का रूप और चित्र नहीं, बल्कि एक सम्पूर्ण दृश्य उपस्थित होता है. नरेंद्र जैन के पास कस्बाई जीवन का गहन संवेदनात्मक अनुभव है, साथ ही दुर्लभ सरलता और साफगोई भी. उनकी कुछ कविताओं के क्रम में आज पढ़िए यह कविता---
हितकारिणी/नरेंद्र जैन
मुसाफिरों
यहाँ रहकर
कुछ दिन चैन से गुजारो
यहाँ रहो और अनुभव करो कि
यह भी एक घर हुआ
यहाँ बैठकर जलाओ चूल्हे
और टिक्कड़ खाओ
पढो कि लिखा है इस पत्थर पर-
" बनाई १९१० इसवी में
यह हितकारिणी धर्मशाला
पं. रामनारायण पुरोहित ने,
मरहूम दोस्त यार मोहम्मद द्वारा
दी गयी दान में वह जमीन
जिस पर की गयी निर्मित
यह हितकारिणी धर्मशाला "
मुसाफिरों, यहाँ
रहो
और रहने दो हिन्दुस्तान को
हिन्दुस्तान की तरह .
हितकारिणी/नरेंद्र जैन
मुसाफिरों
यहाँ रहकर
कुछ दिन चैन से गुजारो
यहाँ रहो और अनुभव करो कि
यह भी एक घर हुआ
यहाँ बैठकर जलाओ चूल्हे
और टिक्कड़ खाओ
पढो कि लिखा है इस पत्थर पर-
" बनाई १९१० इसवी में
यह हितकारिणी धर्मशाला
पं. रामनारायण पुरोहित ने,
मरहूम दोस्त यार मोहम्मद द्वारा
दी गयी दान में वह जमीन
जिस पर की गयी निर्मित
यह हितकारिणी धर्मशाला "
मुसाफिरों, यहाँ
रहो
और रहने दो हिन्दुस्तान को
हिन्दुस्तान की तरह .
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